भाग्य और पुरुषार्थ में विवाद उठ खङा हुआ । उसने कहा मैं बङा दूसरे ने कहा मैं बङा । विवाद ने उग्र रुप धारण कर लिया । यश ने मध्यस्थता स्वीकार कर निर्णय देने का वचन दिया । दोनों को यश ने आज्ञा दी कि तुम मृत्युलोक में जाओ । दोनों ने बाँहे तो चढा़ ली पर पूछा-'महाराज ! हम दोनों एक ही जगह जाना चाहते हैं पर जायें कहाँ ? हमें तो ऐसा कोई दिखाई ही नहीं देता । यश की आँखें संसार को ढूंढते-ढूंढते हमीर पर आकर ठहर गई ।
वह हठ की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
एक मंगलमय पुण्य प्रभात में हठ यहाँ शरणागत वत्सलता ने पुत्री के रुप में जन्म लिया । वह वैभव के मादक हिंडोली में झूलती, आङ्गन में घुटनों के बल गहकती, कटि किंकण के घुंघरुओं की रिमझिम के साथ बाल-सुलभ मुक्त हास्य के खजाने लुटाती एक दिन सयानी हो गई । स्वयंवर में पिता ने घोषणा की-'इस अनिंद्य सुन्दरी को पत्नी बनाने वाले को अपना सब कुछ देना पङता है । यही उसकी कीमत है ।
वह त्याग की चुनौती थी ।
हमीर ने- 'स्वीकार है ।'
त्याग की परीक्षा आई । सोलहों श्रृंगार से विभूषित, कुलीनता के परिधान धारण कर गंगा की गति से चलती हुई शरणागत वत्सलता सुहागरात्रि के कक्ष में हमीर के समक्ष उपस्थित हुई-
'नाथ ! मैं आपकी शरण में हूँ परन्तु मेरे साथ मेरा सहोदर दुर्भाग्य भी बाहर खड़ा है । क्या फिर भी आप मुझे सनाथ करेंगे ।
वह भाग्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
अलाउद्दीन की फौज का घेरा लगा हुआ था । बीच में हमीर की अटल आन का परिचायक रणथम्भौर का दुर्ग सिर उँचा किये इस प्रकार खड़ा था जैसे प्रलय से पहले ताण्डव मुद्रा में भगवान शिव तीसरा नेत्र खोलने के समय की प्रतीक्षा कर रहे हों । मीरगभरु और मम्मूशा कह रहे थे- 'इन अदने सिपाहियों के लिये इतना त्याग राजन ! हमारी शरण का मतलब जानते हो ? हजारों वीरों की जीवन-कथाओं का उपसंहार, हजारों ललनाओं की अतृप्त आकांक्षाओं का बल पूर्वक अपहरण, हजारों निर्दोष मानव-कलिकाओं को डालियों से तोड़ कर, मसल कर आग में फेंक देना, इन रंगीले महलों के सुनहले यौवन पर अकाल मृत्यु के भीषण अवसाद को डालना ।'
वह परिणामों की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
भोज्य सामग्री ने कहा-'मैं किले में नही रहना चाहती, मुझे विदा करो ।'
वह भूखमरी की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
रणचण्डी ने कहा-'मैं राजपूतों और तुम्हारा बलिदान चाहती हूँ । इस चहकते हुए आबाद किले को बर्बाद कर प्रलय का मरघट बनाना चाहती हूँ ।'
वह मृत्यु की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
शाका ने आकर केसरिया वस्त्रों की भेंट दी और कहा-'मुझे पिछले कई वर्षों से बाँके सिपाहियों के साक्षात्कार का अवसर नही मिला । मैं जिन्दा रहूंगा तब तक पता नहीं वे भी रहेंगे या नही ।'
वह शौर्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
हमीर के हाथों में लोहा बजने लगा । अन्तर की प्यास को हाथ पीने लगे । उसके पुरुषार्थ का पानी तलवार में चढ़ने लगा । खुन की बाढ़ आई और उसमें अलाउद्दीन की सेना डूब गई । मानवता की सरल-ह्रदया शान्ति ने हमीर की तलवार पकड़ ली और फिर उसे छोड़कर चरणों में गिर पङी ।
वह विजय की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा - स्वीकार है ।
अप्रत्याशित विजय पर हमीर के सिपाही शत्रुसेना के झण्डे उछालते, घोड़े कुदाते रणथंभौर के किले की ओर जा रहे थे । दुर्भाग्य ने हाथ जोड़कर राह रोक ली,-'नृपश्रेष्ठ ! मैं जन्म-जन्म का अभागा हूँ । जिस पर प्रसन्न होता हूँ उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है । मैं जानता हूँ मेरी शुभकामनाओं का परिणाम क्या हुआ करता है परन्तु आप जैसे निस्वार्थी और परोपकारी क्षत्रिय के समक्ष सिर झुकाना भी कृतघ्नता है । आप जैसे पुरुषार्थी मेरा सिर भी फोड़ सकते हैं, फिर भी मेरा अन्तःकरण आपकी प्रशंसा के लिये व्याकुल है । क्या मैं अपनी प्रशंसा प्रकट करुं ?
वह विधाता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
शत्रु पक्ष के झण्डों को उछलते देखकर दुर्ग के प्रहरी ने युद्ध के परिणाम का अनुमान लगा लिया । बारुद की ढेरी में भगवान का नाम लेकर बती लगा दी गई । आँख के एक झपके के साथ धरती का पेट फूट गया । चहचहाती हुई जवान जिन्दगी मनहूस मौत में बदल गई । हजारों वीराङ्गनाओं का अनुठा सौन्दर्य जल कर विकराल कुरुपता से ऐंठ गया । मन्द-मन्द और मन्थर-मन्थर झोंकों द्वारा विलोङित पालनों में कोलाहल का अबोध शिशु क्षण भर में ही नीरवता का शव बन चुका था । गति और किलोलें करते खगवृन्द ने चहचहाना बन्द कर अवसाद में कुरलाना शुरु कर दिया । जिन्दगी की जुदाई में आकाश रोने लगा । सोती हुई पराजय मुँह से चादर हटाकर खङी हुई । कुमकुम का थाल लेकर हमीर के स्वागत के लिये द्वार पर आई-'प्रभु ! मेरी सौत विजय को तो कोई भी स्वीकार कर सकता है परन्तु मेरे महलों में आप ही दीपक जलवा रहे हैं ।
वह साहस की चुनौती थी ।
हमीर ने-'स्वीकार है ।
हमीर ने देखा, कारवाँ गुजर चुका है और उसकी खेह भी मिटने को है, बगीचे मुरझा गए हैं और खुशबू भटक रही है। जीवन के अरमान मिट्टी में मिलकर धुमिल पङ गए हैं और उसकी मनोहर स्मृतियाँ किसी वैरागी की ठोकर की प्रतीक्षा कर रही हैं । मृत्यु ने आकर कहा-'नरश्रेष्ठ ! अब तो मेरी ही गोदी तुम्हारे लिये खाली है ।'
वह निर्भयता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
महाकाल के मन्दिर में हमीर ने अपने ही हाथों अपना अनमोल मस्तक काटकर चढा़ दिया । पुजारी का लौकिक जीवन समाप्त हो गया । परन्तु उसके यशस्वी हठ द्वारा स्थापित अलौकिक प्रतिष्ठा ने इतिहास से पूछा- क्या ऐसा कोई हुआ है ? फिर उसने लुटे हुए वर्तमान की गोदी में खेलते हुए भविष्य से भी पूछा-'क्या ऐसा भी कोई होगा ? प्रश्न अब भी जिज्ञासु है और उत्तर निरुतर । रणथम्भौर दुर्ग की लुटी हुई कहानी का सुहाग अभी तक लौटकर नहीं आया । उसका वैभव बीते हुए दिनों की याद में आँसू बहा रहा है ।
यह शरणागत वत्सलता की चुनौती है ।
परन्तु इस चुनौती को कौन स्वीकार करें ? हमीर आत्मा स्वर्ग पहुँच गई, फिर भी गवाक्षों में लौट कर आज भी कहती है-'स्वीकार है ।
यश पुरुषार्थ की तरफ हो गया । भाग्य का मुँह उत्तर गया । नई पीढ़ी आज भी पूछती है -
"सिंह गमन सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार ।
तिरिया तेल हमीर हठ, चढै न दूजी बार ।।"
जिसके लिये यह दोहा कहा गया है वह रणथम्भौर का हठिला हमीर कौन था ?
तब अतीत के पन्ने फङफङा कर उतर देते हैं- 'वह भी एक क्षत्रिय था ।'
चित्रपट चल रहा था और दृश्य बदलते जा रहे थे ।।
साभार पुस्तक - बदलते दृश्य ।
लेखक - तनसिंह जी बाङमेर ।।