Thursday, 26 May 2016

चुनौती - हठी हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर

चुनौती - हठी हम्मीर देव चौहान रणथम्भौर
 
भाग्य और पुरुषार्थ में विवाद उठ खङा हुआ । उसने कहा मैं बङा दूसरे ने कहा मैं बङा । विवाद ने उग्र रुप धारण कर लिया । यश ने मध्यस्थता स्वीकार कर निर्णय देने का वचन दिया । दोनों को यश ने आज्ञा दी कि तुम मृत्युलोक में जाओ । दोनों ने बाँहे तो चढा़ ली पर पूछा-'महाराज ! हम दोनों एक ही जगह जाना चाहते हैं पर जायें कहाँ ? हमें तो ऐसा कोई दिखाई ही नहीं देता । यश की आँखें संसार को ढूंढते-ढूंढते हमीर पर आकर ठहर गई ।
वह हठ की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
 
एक मंगलमय पुण्य प्रभात में हठ यहाँ शरणागत वत्सलता ने पुत्री के रुप में जन्म लिया । वह वैभव के मादक हिंडोली में झूलती, आङ्गन में घुटनों के बल गहकती, कटि किंकण के घुंघरुओं की रिमझिम के साथ बाल-सुलभ मुक्त हास्य के खजाने लुटाती एक दिन सयानी हो गई । स्वयंवर में पिता ने घोषणा की-'इस अनिंद्य सुन्दरी को पत्नी बनाने वाले को अपना सब कुछ देना पङता है । यही उसकी कीमत है ।
वह त्याग की चुनौती थी ।
हमीर ने- 'स्वीकार है ।'
 
त्याग की परीक्षा आई । सोलहों श्रृंगार से विभूषित, कुलीनता के परिधान धारण कर गंगा की गति से चलती हुई शरणागत वत्सलता सुहागरात्रि के कक्ष में हमीर के समक्ष उपस्थित हुई-
'नाथ ! मैं आपकी शरण में हूँ परन्तु मेरे साथ मेरा सहोदर दुर्भाग्य भी बाहर खड़ा है । क्या फिर भी आप मुझे सनाथ करेंगे ।
वह भाग्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
 
अलाउद्दीन की फौज का घेरा लगा हुआ था । बीच में हमीर की अटल आन का परिचायक रणथम्भौर का दुर्ग सिर उँचा किये इस प्रकार खड़ा था जैसे प्रलय से पहले ताण्डव मुद्रा में भगवान शिव तीसरा नेत्र खोलने के समय की प्रतीक्षा कर रहे हों । मीरगभरु और मम्मूशा कह रहे थे- 'इन अदने सिपाहियों के लिये इतना त्याग राजन ! हमारी शरण का मतलब जानते हो ? हजारों वीरों की जीवन-कथाओं का उपसंहार, हजारों ललनाओं की अतृप्त आकांक्षाओं का बल पूर्वक अपहरण, हजारों निर्दोष मानव-कलिकाओं को डालियों से तोड़ कर, मसल कर आग में फेंक देना, इन रंगीले महलों के सुनहले यौवन पर अकाल मृत्यु के भीषण अवसाद को डालना ।'
वह परिणामों की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
 
भोज्य सामग्री ने कहा-'मैं किले में नही रहना चाहती, मुझे विदा करो ।'
वह भूखमरी की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
रणचण्डी ने कहा-'मैं राजपूतों और तुम्हारा बलिदान चाहती हूँ । इस चहकते हुए आबाद किले को बर्बाद कर प्रलय का मरघट बनाना चाहती हूँ ।'
वह मृत्यु की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
 
शाका ने आकर केसरिया वस्त्रों की भेंट दी और कहा-'मुझे पिछले कई वर्षों से बाँके सिपाहियों के साक्षात्कार का अवसर नही मिला । मैं जिन्दा रहूंगा तब तक पता नहीं वे भी रहेंगे या नही ।'
वह शौर्य की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
हमीर के हाथों में लोहा बजने लगा । अन्तर की प्यास को हाथ पीने लगे । उसके पुरुषार्थ का पानी तलवार में चढ़ने लगा । खुन की बाढ़ आई और उसमें अलाउद्दीन की सेना डूब गई । मानवता की सरल-ह्रदया शान्ति ने हमीर की तलवार पकड़ ली और फिर उसे छोड़कर चरणों में गिर पङी ।
वह विजय की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा - स्वीकार है ।
 
अप्रत्याशित विजय पर हमीर के सिपाही शत्रुसेना के झण्डे उछालते, घोड़े कुदाते रणथंभौर के किले की ओर जा रहे थे । दुर्भाग्य ने हाथ जोड़कर राह रोक ली,-'नृपश्रेष्ठ ! मैं जन्म-जन्म का अभागा हूँ । जिस पर प्रसन्न होता हूँ उसका सब कुछ नष्ट हो जाता है । मैं जानता हूँ मेरी शुभकामनाओं का परिणाम क्या हुआ करता है परन्तु आप जैसे निस्वार्थी और परोपकारी क्षत्रिय के समक्ष सिर झुकाना भी कृतघ्नता है । आप जैसे पुरुषार्थी मेरा सिर भी फोड़ सकते हैं, फिर भी मेरा अन्तःकरण आपकी प्रशंसा के लिये व्याकुल है । क्या मैं अपनी प्रशंसा प्रकट करुं ?
वह विधाता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।
 
शत्रु पक्ष के झण्डों को उछलते देखकर दुर्ग के प्रहरी ने युद्ध के परिणाम का अनुमान लगा लिया । बारुद की ढेरी में भगवान का नाम लेकर बती लगा दी गई । आँख के एक झपके के साथ धरती का पेट फूट गया । चहचहाती हुई जवान जिन्दगी मनहूस मौत में बदल गई । हजारों वीराङ्गनाओं का अनुठा सौन्दर्य जल कर विकराल कुरुपता से ऐंठ गया । मन्द-मन्द और मन्थर-मन्थर झोंकों द्वारा विलोङित पालनों में कोलाहल का अबोध शिशु क्षण भर में ही नीरवता का शव बन चुका था । गति और किलोलें करते खगवृन्द ने चहचहाना बन्द कर अवसाद में कुरलाना शुरु कर दिया । जिन्दगी की जुदाई में आकाश रोने लगा । सोती हुई पराजय मुँह से चादर हटाकर खङी हुई । कुमकुम का थाल लेकर हमीर के स्वागत के लिये द्वार पर आई-'प्रभु ! मेरी सौत विजय को तो कोई भी स्वीकार कर सकता है परन्तु मेरे महलों में आप ही दीपक जलवा रहे हैं ।
वह साहस की चुनौती थी ।
हमीर ने-'स्वीकार है ।
 
हमीर ने देखा, कारवाँ गुजर चुका है और उसकी खेह भी मिटने को है, बगीचे मुरझा गए हैं और खुशबू भटक रही है। जीवन के अरमान मिट्टी में मिलकर धुमिल पङ गए हैं और उसकी मनोहर स्मृतियाँ किसी वैरागी की ठोकर की प्रतीक्षा कर रही हैं । मृत्यु ने आकर कहा-'नरश्रेष्ठ ! अब तो मेरी ही गोदी तुम्हारे लिये खाली है ।'
वह निर्भयता की चुनौती थी ।
हमीर ने कहा-'स्वीकार है ।'
 
महाकाल के मन्दिर में हमीर ने अपने ही हाथों अपना अनमोल मस्तक काटकर चढा़ दिया । पुजारी का लौकिक जीवन समाप्त हो गया । परन्तु उसके यशस्वी हठ द्वारा स्थापित अलौकिक प्रतिष्ठा ने इतिहास से पूछा- क्या ऐसा कोई हुआ है ? फिर उसने लुटे हुए वर्तमान की गोदी में खेलते हुए भविष्य से भी पूछा-'क्या ऐसा भी कोई होगा ? प्रश्न अब भी जिज्ञासु है और उत्तर निरुतर । रणथम्भौर दुर्ग की लुटी हुई कहानी का सुहाग अभी तक लौटकर नहीं आया । उसका वैभव बीते हुए दिनों की याद में आँसू बहा रहा है ।
यह शरणागत वत्सलता की चुनौती है ।
परन्तु इस चुनौती को कौन स्वीकार करें ? हमीर आत्मा स्वर्ग पहुँच गई, फिर भी गवाक्षों में लौट कर आज भी कहती है-'स्वीकार है ।
 
यश पुरुषार्थ की तरफ हो गया । भाग्य का मुँह उत्तर गया । नई पीढ़ी आज भी पूछती है -
 
"सिंह गमन सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार ।
तिरिया तेल हमीर हठ, चढै न दूजी बार ।।"
 
जिसके लिये यह दोहा कहा गया है वह रणथम्भौर का हठिला हमीर कौन था ?
तब अतीत के पन्ने फङफङा कर उतर देते हैं- 'वह भी एक क्षत्रिय था ।'
चित्रपट चल रहा था और दृश्य बदलते जा रहे थे ।।
 
साभार पुस्तक - बदलते दृश्य ।
लेखक - तनसिंह जी बाङमेर ।।

स्वर्ग में स्वागत - कल्ला रायमलोत सिवाणा

स्वर्ग में स्वागत - कल्ला रायमलोत सिवाणा
 
आज स्वर्ग में बड़ी हलचल थी, इतर का छिडकाव हो रहा था, मंडपों को अलंकृत किया जा रहा था, गन्धर्व अपने अपने तान्पुरों के तार कास रहे थे, अप्सराएँ सोलह श्रृंगार में व्यस्त थी |
मेनका सबसे प्रोढ़ थी किन्तु उसने तो आज ऐसी सज्जा बना ली थी जैसे उसी विश्वामित्र ऋषि को दुबारा छलने जा रही हो | उर्वशी को अपने सुकुमार सोंदर्य का भरोसा था फिर भी उसका प्रतिबिम्ब दर्पण से बार बार पूछ रहा था - 'कौन प्रतिस्पर्धा में विजयी होगा ?' जब दर्पण मूक ही रहा तो उर्वशी भी मनोयोग से अम्लान पुष्पों की माला गूंथने में सलंगन हो गई |तिलोत्तमा को अपने नृत्य पर भरोसा था इसलिए वह घुन्घुरुओं को ठीक कर रही थी |
 
चारों और झमक झमक और ता-तुन हो रही थी | इंद्र देव अपने सोमरस के घड़ों को सुव्यवस्थित कर रहे थे | जीन कसा हुआ उच्चेश्र्वा (घोडा) शायद किसी की सवारी के लिए उतावला हो कर हिन् हिना रहा था | एरावत हाथी पर शहनाईयां और नगारे बजाने के हौदे कसे जा रहे थे | इतने में ही ब्रह्मऋषि नारद खडाऊ पहने खट्ट-खट्ट करते हुए ' नारायण -नारायण ' बोलते आ धमके | उनका किसी ने अभिवादन तक नहीं किया | थोड़े अप्रतिभ होकर फिर स्वस्थ होकर इंद्र से पूछने लगे -
 
' सुरराज ! आज तो बड़ी तैयारियां हो रही है | वह कौन भाग्यशाली है जिसके लिए इतनी व्यस्तता है ,समूचे के समूचे स्वर्ग में ?'
बिना नारद को देखे देवराज इंद्र ने अपने सोमघटों पर नजर दौड़ते हुए कहा -
' तो क्या ऋषिराज ! आपको कुछ भी मालूम नहीं ?
' नहीं तो !'
' आज यहाँ कल्ला रायमलोत आ रहा है | '
इतना कहकर इंद्र ने नारद की और एक उडती हुई निगाह फेंकी |
 
यह कल्ला रायमलोत कौन है ? '
' उसका परिचय तो सरस्वती ही दे सकती है ,पर हाँ ! इस समय मृत्यु लोक में उसके हाथ उसका परिचय दे रहे है | स्वयं ही देख लीजिए न |'
नारद जी खटाक-खटाक कर चलते हुए स्वर्ग के एक-एक वातायन को खोल कर नीचे मृत्यु लोक को झांक कर देखने लगे |
कल्ला रायमलोत लड़ रहा है जिसकी मूंछे भोंहों से भिड़ी हुई है | केसरियां वस्त्र धारण किये यंत्र वत तलवार चला रहा है |
खच्च !
हाथी का झटका हो गया -
खच्च !
एक शत्रु के कंधे में तलवार घुसी और उसके घोड़े को पार कर करती हुई निकाल गई -
खच्च !
 
एक मुगाक की दाड़ी को काटती हुई ,रक्त पीते , पीठ फाड़ कर बाहर निकाल गई -
नारद की अंगुली वीणा के एक तार से अनजाने ही उलझ गई -
तुन -तुनन ......तुन .........|
खच्च ! खच्च !!
मुगलों के दो सिर इस प्रकार गुड़क गए जैसे किसी सन्यासी की फटी झोली से दो तुम्बे धरती पर गिर गएँ हो |
किले का भेदिया नाई मुग़ल सेनापति के साथ किले में घुस आया | और खच्च -
तलवार के एक ही वार से नाई को अमर लोक मिल गया और सेनापति -' ला हौल विला कुव्वत ' कहता हुआ भाग गया |
धडाधड मुग़ल सैनिकों ने किले में प्रवेश किया और कल्ला रायमलोत को घेर कर लड़ने लगे |
खचा -खच , खचा -खच | खच्च !!
शत्रुओं के सिर ऐसे बिखर गए जैसे तूफान में खेजड़ी के खोखे |
 
नारद जी के चहरे पर मुस्कराहट फ़ैल गई |जीती हुई बाजी हारते देख असंख्य शत्रु किले में घुस आये और अंधाधुंध वार चलाने लगे | और खच्च !
कल्ला का सिर धड से अलग हो गया |
सिर चला गया हवा में चक्कर कटता हुआ हाड़ी के पास जो पहले से ही हाथ में नारियल लिए इसी की प्रतीक्षा कर रही था |
चिता जल उठी और नारद जी ने मन मन ही मंत्रार्ध गुन गुनगुनाया -
अजो नित्य : शाश्वतोय्म पुराणों,
न हन्यते हन्यमाने शरीरे |
 
सिर चला गया और धड दोनों हाथों से तलवारें चला रहा है | एक और कल्ला की तलवारें शत्रुओं के शोणित से अपनी प्यास बुझा रही है और दूसरी और चिता में जलकर राजपूती अपनी प्यास आग में बुझा रही है | एक और व्योम मार्ग पर दो पथिक अनंत पथ की यात्रा पर बढ़ते आ रहे है हाथ में हाथ लिए , मुस्कराते हुए कभी कभी मुड़कर देखते है अपने ही बहे हुए रक्त को और अपनी ही जलती हुई चिता को | दूसरी और मृत्यु लोक में एक अमर कहानी ख़त्म हो रही है -सदा के लिए ,सदा सर्वदा के लिए |
 
स्वर्ग में गन्धर्वो के तानपुरे सहसा झनझना उठे | अप्सराओं के घुंघरू तबलों की थप्पी के साथ एक साथ छनछना उठे | सोमरस के प्याले में प्रेम भरी मनुहारें चलने लगी | शंख और दिव्य शहनाईयों में परस्पर वार्तालाप होने लगे | देवताओं की स्वागत भरी निगाहें परस्पर ले दे रही थी | नारद जी ने मुंह मोड़कर देखा तो कल्ला खड़ा है , मरा नहीं और हाड़ी भी जली नहीं , सामने खड़ी है |
 
नारद जी ने अपनी शंका का स्वयं ही समाधान किया - ' ऐसी जिन्दगी भी क्या कभी जल मर सकती है ? मरती तो केवल छाया है -छाया |' आँखों को अर्ध्मुन्दी कर मग्न होकर नारद ने वीणा बजाना शुरू किया | अप्सराओं को ऐसे ओजपूर्ण ,शूरवीर और तेजस्वी वर के गले में वरमाला डालने का साहस नहीं हो रहा था | फिर भी स्वर्ग सनाथ हो गया और धरती अनाथ क्योंकि धरा का पति कल्ला आज धरा को छोड़ कर स्वर्ग में चला आया था |
अकबर के दरबार तो बाद में भी लगे है , कई शहंशाहों के ठाठ बने और उजाड़ गए पर भरे दरबारों में मूंछ पर हाथ देने का साहस किसी को नहीं हुआ क्योंकि एसा तो केवल कल्ला ही था जो कभी लौटकर नहीं आया |
मूंछो वाले तो आज भी बहुत है , लेकिन वह पानी कहाँ मुछ का , वह अलबेला बांकापन कहाँ जो सल्तनतों तक को चुनौती दे सके | मूंछों की तो मरोड़ ही कल्ला रायमलोत के साथ चली गई |

रूप की प्यास बुझाने के लिए अल्लाउद्दीन चितौड़ पर और औरंगजेब रूपनगर पर चढ़ आया था पर मौत की मजाक उड़ाकर अकबर की प्यास को अंगूठा दिखाने वाला कल्ला रायमलोत ही था | मौत की अब कौन मसखरी करे , कल्ला जो चला गया |
पृथ्वीराज ने तो बाद में भी कविताएँ की है , कई रसिक महाकवि भी बन गए , नै भाषाओँ ने जन्म लिए और नई कल्पनाओं ने उड़ाने भरी है पर वह शमा ही कहाँ ,वह प्रवाह ही कहाँ , और वह सौष्ठव भी कहाँ ? उन्हें तो पात्र ही नहीं मिलता क्योंकि कविताएँ धरती पर रह गई और उनका पात्र कल्ला स्वर्ग जो चला गया |

युद्ध भी होंगे , वीर भी जन्मेंगे , धरती कभी निर्बीज नहीं हुई है | सिर भी कटेंगे और कटने के बाद भी लड़े है , बोटी बोटी कटने पर झुझते हुए दिखाई देंगे परन्तु हाथियों के चक्कर करने वाला और घोड़ों की टाँगे पकड़कर फेंकने का दृश्य कभी नहीं देखा , कल्ला रायमलोत जो चला गया |

मरुधरा की सूखी और भूखी धरा वर्षों से प्रतीक्षा कर रही है , सिवाणे का उपेक्षित और उजड़ा हुआ किला अब भी दहाड़ मार रहा है , कोई हमारी भी प्यास बुझाओ , कोई हमें भी सनाथ करो , तब वर्षा की कंजूस फुहारें उदारता का स्वांग रचकर फुसलाने की चेष्ठा करती है लेकिन इन पत्थरों पर लिखी हुई अमिट कविताओं की आग न कभी शांत हुई है और न कभी शांत होगी | कल्ला रायमलोत लौट के आने का नहीं और धरा और धर्म की मांग पूरी होने की नहीं |
कल्ला रायमलोत के वियोग में यहाँ की वनस्पति सुख गई है , फिर भी उसकी आँखों में कातरता के जलप्रपात ढुलक रहे है |
जिसकी तलवार से आसमान के सितारे टूट गए थे ,मरने के बाद भी जिसकी भुजाएँ अपना कर्तव्य निभा रही थी , जिसकी यादगार आज भी कर्तव्य की याद दिला रही है, याद दिला रही है कि वह भी एक क्षत्रिय था ।
 
बदलते दृश्य - तनसिंह जी बाङमेर ।

Wednesday, 18 May 2016

"बिलखते खण्डहर"

"बिलखते खण्डहर"
 
आज शाम फिर बारात आयी है गाँव में, केशरिया साफा पहने हुवै बांके रणबंके व मुछो के ताव लगाते सफेद धोती और ढाढी वाले ठाकुरो का हुजुम फिर लगा है ।
गाँव के बाहर सरकारी स्कुल में ही बारात का डेरा लगा है और सामहेला भी उसी पुराने स्थान पर हो रहा है ।
 
मैं खण्डहर में कैद वर्षों से यह सब देख रहा हुँ कितने दुल्हे यहाँ आये और कितनी दुल्हन यहाँ से विदा हुई ।
मुझे भी याद है यही स्थान था जहाँ मेरे सामहेले हुवै थे जनरेशन बदल गयी, रिवाज बदल गयें, लोग बदल गये, पर मैं यही हुँ आज भी इस खण्डहर के चबुतरे मैं केद ।
 
इस गाँव में आखातीज पर कोई दुल्हा बनकर मेरे बाद नही आया ।
 
अंग्रेजों का दौर था गोरों कि उन दिनो मनमानी चलती थी ।
क्रूर और अत्याचारी लोग थे, जब मेरी बारात आयी तो गौरों कि तरफ से फरमान था पहले हमसे अनुमति ले फिर कोई कार्य गाँव में करे ।
 
और इसी बात पर इस गाँव के ठाकुर साहब व गौरे कई बार आमने सामने हो गये थे ।
हम तिर, तलवार, भाले और ढाल वाले थे और वह बंदूक व बारूद वाले दुसाहसी ।
इस रोज भी बारात आने के कुछ देर बाद गौरों कि टुकङी आ धमकी गाँव में ।
 
इस बार बंदूक से तलवार ने टकराने का फैसला किया आंतक के अंत के लिये और क्या था उधर से धांय धांय कि आवाज आती और इधर से छक छक करती रणचंङी कई गौरों का रक्त चख चुकी थी ।
थोङे ही समय में मंगल गीत विरह गीतों में बदल गयें,
 
मेरा सिर और धङ यही गिरा था ।
 
गाँव वालों ने उस समय एक चबुतरा याद में बनवा दिया था और हर बारात के आने से पहले मुझे याद किया जाता था ।
अब जनरेशन बदल गयी, समय बदल गया रिवाज बदल गयें ।
 
अब भी बारात आती है पर मुझे कोई याद नही करता हां कुछ बाराती जरुर बैठने कि जगह ढुंढते हुवै आते है यही बैठकर पिते है और दुनियाभर कि बाते करते है ।
 
कुछ बाराती आपस में अपनी कौम कि बहादुरी के किस्से सुनाते है,
तो कुछ समय के साथ बदलने कि बात करते है ।
कुछ गौरों कि भाषा भी बोलने लगे है ।
 
मेरा दर्द इन सबको देखकर प्रवान चढ जाता है मैं किस धर्म का अनुसरण कर रहा था और आज मेरा समाज क्या है, और मेरे साथ यह खण्डहर भी बिलखते है ।।
 
लेखन - बलवीर राठौड़ डढेल !

अतीत कि कुछ झलकियाँ


अतीत कि कुछ झलकियाँ
 
अतीत कि कुछ झलकियाँ जिन्हें देख आज भी अनेकों भाव मन मस्तिष्क में उमङ जाते है ।।
चितौङ इसका त्याग, बलिदान, इतिहास, बहादुरी, जौहर - शाके, हठ, निति, राजनीति और न जाने क्या क्या !!
सिसोदियों कि रट और राठौङी हठ ।।
 
बप्पा रावल, राणा कुम्भा, सांगा ही नही उङने राजकुमार पृथ्वीराज सिंह भी इसी माटि के सपूत थे ।।
प्रवेश कर कुछ आगे जाते है तो हम मेङतियाँ राठौड़ भी गर्व से सिर उँचा कर चलने लगते है और आँखें इधर उधर जयमल मेङतियाँ कही खड़े नजर आये देखने का प्रयास करती है ।
पर फता जी कि याद आते ही बात समझ आती है बलवीर वह अमर बलिदान हर कौने मे है,
क्यों आँखें चारों और दौड़ा रहे हो, तभी तो चितौङ कहता है अभी मेरी कहानी लम्बी है ।।
 
जब कई दरवाजों से प्रवेश करते है तो पता चलता है यहाँ कदम कदम पर आत्म- सम्मान और स्वाभिमान का मोल चुकाया गया था प्राणों कि आहुति से ।।
राणा कुम्भा का महल और कलाकृतियों को देख मेवाड़ कि ख्याति का आनन्द लेते हुवे जब आगे बढ़ते है तो म्यूजियम में रखा "कल" अपने गौरवपूर्ण इतिहास से अवगत करवाता है ।।
 
 
में अब बिच खड़ा हो एक तरफ कीर्ति-स्तम्भ देखने लगा उँचाई पुरी आँखों से नाप पाता उससे पहले नजर पद्मिनी महल कि और गयी ।
राणा रतनसिं, गौरा-बादल, तुर्क सेना खिलजी का मुँह धुल मे और कवीयों कि वाणी बादल बारह वर्ष रो लङीयो लाखा बिच ।।
अब क्या निर्णय करुं कीर्ति बङी या बलिदान ??
 
एक तरफ कुम्भा जैसा अजय शासक और दुसरी तरफ बलिदान कि लम्बी कतार !!
किधर जाऊ कोई निर्णय हो पाता उससे पहले ही....
 
साहब घोड़े कि सवारी करोगे ???
नहीहीही ।।।
दृश्य बदल जाते है,
कहानी अधुरी रह गयी ।।
 
लेखन - बलवीर राठौड़ डढेल ।।