राजा मानसिंह द्वारा वाराणसी में निर्मित मानमंदिर व घाट मान मंदिर वाराणसी ।
आमेर के राजा मानसिंह ने देश के विभन्न भागों में बहुत से मंदिरों का निर्माण करवाया व कई मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया, हरिद्वार में हर की पौड़ी बनवाई| अपने इसी धार्मिक क्रियाकलापों की श्रंखला में राजा मानसिंह ने वाराणसी में एक मंदिर और घाट बनवाया, जिसे मानमंदिर के नाम से जाता है इतिहास में इस मंदिर के बारे में दर्ज है-
1600 ई. में आमेर के राजा मानसिंह ने बनारस में एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया था। हालाँकि वाराणसी नगर में इस मंदिर की इतिहासकारों के हिसाब से वास्तविक स्थिति का पता नहीं लग सका है पर मगध विश्व विद्यालय, गया के इतिहास रीडर राजीव नयन प्रसाद अपनी पुस्तक “राजा मानसिंह आमेर” के पृष्ठ संख्या 209 पर लिखते है - एक भवन है जिसे मानमंदिर कहते है (मान का मंदिर), जो गंगा किनारे दशाश्वमेघ घाट से कुछ गज पश्चिम में बना हुआ है। जहाँगीरनामा में जिस मंदिर का उल्लेख है वह भवन के एक स्थान में निसंदेह बना हुआ होगा यही कारण है तमाम भवन को मान मंदिर कहा जाने लगा।
इतिहासकार राजीव नयन इस मंदिर के प्रधान देवता पर प्रश्न उठाते हुए लिखते है कि - वाराणसी को विश्वनाथपुरी भी कहा जाता है क्योंकि नगर के मुख्य देवता स्वामी विश्वनाथ है। इसके अतिरिक्त राजा मानसिंह के दूसरे मंदिरों में मुख्य देवता शिव या महादेव है, इसलिये इस बात की प्रबल सम्भावना है की मानमंदिर के मुख्य देवता भगवान शिव थे।
मानमंदिर आज खंडित अवस्था में है। इसके उपरी मंजिल में गृहों को देखने के लिए ज्योतिष के यंत्र फिट कर 1734 में राजा मान सिंह के वंशज सवाई जय सिंह द्वारा वैधशाला बनाई गई। झरोखेदार खिड़कियों, सीलिंग पर सुन्दर नक्काशी वाली मजबूत व बेजोड़ इमारत होने के बावजूद सामान्य दृष्टि से देखने पर मानमंदिर अधिक कलात्मक नहीं लगता, तथापि गंगा की और से देखने पर यह काफी विशाल दिखाई देता है। नदी की और इसकी एक छज्जेयुक्त खिड़की खुलती है जो तत्कालीन स्थापत्य कला की दृष्टि से सुहावनी व सुन्दर है। इसके नीचे राजा मानसिंह ने एक घाट का भी निर्माण कराया जिसे मानघाट के नाम से आज भी जाना जाता है।
मानसिंह द्वारा निर्मित यह मंदिर उस वक्त उतरी भारत का एक सुन्दर और महत्त्वपूर्ण धार्मिक केंद्र था। इस मंदिर के बारे में जहाँगीर ने अपने आत्मरचित ग्रन्थ में लिखा - राजा मानसिंह ने बनारस में एक मंदिर बनवाया, उसने मेरे पिता के कोषागार से उस पर 10 लाख रूपये खर्च किये। यह विश्वास है कि जो यहाँ मरते है सीधे स्वर्ग जाते है - चाहे बिल्ली, कुतिया, मनुष्य कोई भी हो।
मैंने एक विश्वासी आदमी को मंदिर के बारे में सभी जानकारियां लाने के लिए भेजा। उसने सूचना दी कि राजा ने इस मंदिर के निर्माण में अपने स्वयं के एक लाख रूपये खर्च किये है। इस समय इससे बड़ा दूसरा मंदिर वाराणसी में नहीं है। मैंने अपने पिता से पूछा कि उसने इस मंदिर को बनाने की स्वीकृति क्यों दी ? तो उनका उत्तर था - “मैं सम्राट हूँ और बादशाह या सम्राट पृथ्वी पर परमात्मा की छाया होते है। मुझे सबके प्रति उदार होना चाहिये।”
मौलाना एच. एम. की पुस्तक दरबार ए अकबरी के अनुसार जहाँगीर आगे चलकर लिखता है - “मैंने इसके पास इससे भी बड़ा मंदिर बनाने का आदेश दिया।”
इतिहासकार श्रीराम शर्मा लिखते है कि - अब्दुल लतीफ जो एक मुस्लिम पर्यटक था ने अपनी डायरी में, जिसे उसने जहाँगीर के शासनकाल में लिखी थी, इस मंदिर की स्थापत्य कला की सुन्दरता का हवाला दिया है और लिखा है कि क्या अच्छा होता अगर यह हिन्दू धर्म की सेवा के बदले इस्लाम धर्म की सेवा में बनाया जाता।
जयपुर की वंशावली में भी उल्लिखित है कि - राजा मानसिंह ने एक बड़ा मंदिर बनारस में लोगों की पूजा के लिए बनवाया।
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