Friday, 31 March 2017

धमोरा ठिकाणा कि गणगौर :-

धमोरा ठिकाणा कि गणगौर :-


आज भी यहां सैंकड़ो वर्षों से चली आ रही परम्परा के अनुसार ही मनाया जाता है गणगौर का त्योंहार । बड़े हि हर्षोल्लास के साथ गांव में 36 कौम के लोगों द्वारा मनाया जाता है यह त्योंहार ।।


"ईशर-गणगोर" कि सवारी धार्मिक तरिके क्षत्राणियों द्वारा पुजा के बाद "श्री उदयगढ़" से रवाना होती है जिसमें दो घुड़सवार केसरिया ध्वज लिये अगुवाई करते हैं । इस समय सवारी के साथ सभी क्षत्रिय समाज बन्धु दादोसा, काकोसा, बाबोसा सभी अपनी पारम्परिक राजपूती पोशाक व साफे के साथ होते हैं जिनमें लगभग 50 बन्ना केशरिया साफे व तलवार लिये "ईशर-गणगोर" कि रक्षा करते हुए साथ साथ चलते हैं ।





उदयगढ़ से रवाना होने के बाद कुमावत मोहल्ले से होते हुए गांव के एक पुराने कुए तक पहुंचती है जहां 36 कौम कि महिलाएं विद्यमान होती है पुजा के बाद "ईशर-गणगोर" को 4 फेरे दिलाए जाते हैं और विसर्जित करने वाली सामग्री को यहीं विसर्जित कर दिया जाता है । 
फैरों से पहले तक दोनों का मुंह एक दुसरे के विपरित होता है तथा पौराणिक कथा के अनुसार फैरों के बाद दोनों का मुंह एक तरफ कर दिया जाता है ।


इसके बाद ठाकुर जी के मंन्दिर जाते हैं फिर ब्राह्मणों के मोहल्ले में जाते है जहां ब्राह्मण समाज व आस पास में रहने वाले अन्य समाज कि स्त्रियां पुजा करती है उसके बाद बणियों के मोहल्ले में जाते है वहां भी आस पास में रहने वाले सभी समाजों कि स्त्रियां पुजा करती है इसी तरह आगे भी 2-3 जगह और वहां भी आस पास में रहने वाले समाजों कि स्त्रियां पुजा करती है उसके बाद वापस उदयगढ़ पहुंच जाते हैं ।।

इस तयोंहार को किस खुशी से मनाया जाता है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि होली व दिपावली कि तरह इस दिन भी जो भी बन्धु गांव से बाहर रहते हैं वो गांव पधारते हैं । सदियों से 36 कौम को साथ लेकर चलते आया यह क्षत्रिय समाज आज भी अपनी परम्परा को निभाते हुए हर त्योंहार व धार्मिक अनुष्ठान 36 कौम को साथ लेकर मनाता है ।।
एक बार पुन: सभी को गणगौर उत्सव कि हार्दिक शुभकामनाएं ।।


Tuesday, 28 March 2017

रावल बाप्पा गुहिलोत, मेवाड़ (734-753 ई.)

रावल बाप्पा गुहिलोत, मेवाड़ (734-753 ई.)

मेवाड़ के राजा नरवाहन के 971 ई. के शिलालेख में वपक को गुहिल वंश के राजाओं में चन्द्र के समान और पृथ्वी का रत्न कहा गया है।

वह एक स्वतंत्र और प्रतापी राजा था तथा अपने गुरु हरित ऋषि की बहुत सेवा करता था। बप्पा की सोने की एक मुद्रा प्राप्त हुई है जिस पर शिवलिंग और त्रिशूल अंकित है ।

725-738 ई. के मध्य अरब के मुसलमानों ने सिंध की ओर से राजस्थान पर दूर तक आक्रमण किए उस समय चित्तौड़ पर मौर्य-वंश का शासन था और गुहिलवंश का बप्पा रावल वर्तमान एकलिंग जी के पास नागदा में शासन करता था । ये दोनों वंश प्रतिहारों के सामंत थे ।


मुसलमानों के आक्रमणों से चित्तौड़ निर्बल हो गया और मसुलमानों ने उस पर अधिकार कर लिया । इस पर बप्पा रावल ने 734 ई. में उन्हें चित्तौड़ से खदेड़ कर वहां अपना राज्य स्थापित किया ।
कर्नल जैम्स टॉड ने भी लिखा है कि मल्लेछों की निकाल कर बप्पा रावल ने चित्तौड़ जीता । बप्पा का बल प्रताप इतना बढ़ा कि भावी संतान उसे वंश का संस्थापक मानने लगी जबकि गुहिल वंश का मूल पुरुष गुहादित्य 200 वर्ष पूर्व 566 ई. में हुआ था ।
(उदयपुर राज्य का इतिहास प्रथम-गौ.ही. औझा)

Saturday, 25 March 2017

मर-मर अमर रहो मेवाड़ 566-1707 ई.

मेवाड़ का राजवंश
(मर-मर अमर रहो मेवाड़) 566-1707 ई.
Nature's defense mechanism

सम्राट अशोक देवनामप्रिय प्रियदर्शीं के महान् मौर्य राजवंश के अवसान पर उत्तराधिकारी बना कर चित्तौड़ में एक तेजस्वी गुहिलोत वंश के भारत की आत्मा, अस्मिता और गौरव की रक्षा का कार्य संभाला ।

इसलिए यह कोई आश्चर्य नहीं कि 1950 ई. में देशी राज्यों के विलय के समय सम्पूर्ण भारत में भारत सरकार ने केवल मेवाड़ के महाराणा को महाराज प्रमुख बनाया और दूसरों को केवल राजप्रमुख बनाया ।

इस वीर गुहिलोत वंश की भूमि मेवाड़ का ऐसा रोमांचकारी इतिहास है जिसकी बराबरी का इतिहास अन्य कहीं नहीं मिलता । इसकी परंपरा और इतिहास ने यहां के राजाओं और नागरिकों के वीर कृत्यों को संजोया है जिनके द्वारा उन्होंने अपने देश, धर्म, सभ्यता और संस्कृति की एक हजार वर्ष तक रक्षा की कि जिससे उसे आश्चर्यजनक विशिष्टता प्राप्त हो गई।
परम्परानुसार मेवाड़ के राणा सूर्यवंशी तथा रघुवंश क्षत्रिय थे तथा समस्त हिन्दू समाज एकमत होकर मेवाड़ के राणाओं को भगवान राम का उत्तराधिकारी मानता है और उन्हें 'हिन्दुआ सूरज' कहता है। राणा क्षत्रियों के 36 राजवंशों में सर्वोपरि माने जाते हैं।

भारत के सभी राजपूत राजा मेवाड़ के महाराणाओं को शिरोमणी मान कर उनकी ओर सदा पूज्य भाव रखते आए हैं। उनके इस महत्व का कारण उनकी स्वतंत्रप्रियता और अपने धर्म पर दृढ़ रहना है।

मुसलमानों के राज्य की शक्ति के आगे सैकड़ों हिन्दू राजाओं को नतमस्तक होना पड़ा परन्तु मेवाड़ का राजवंश जो कि संसार के प्राचीनतम राजवंशों में एक है ने सभी दु:ख और विपत्यिां उठा कर भी भारत का भाल और गौरव सदा उन्नत रखा ।

बाबर ने तुजुके बाबरी में लिखा है कि हिन्दुओं में विजयनगर के सिवाय दूसरा प्रबल राजा राणासांगा है जो अपनी वीरता और तलवार के बल से शक्तिशाली हो गया है। मुसलमानों के अधीनस्थ देशों में भी 200 नगरों में राणा का झंडा फहराता था जहां मस्जिदें तथा मकबरे बर्बाद हो गये थे । उसके आधीन 10 करोड़ की आय का प्रदेश है ।

जहांगीर ने तुजुके जहांगीरी में लिखा है कि मेवाड़ के राणाओं ने आज तक किसी नरेश के आगे सिर नहीं झुकाया था । एचिसन ट्रोटीस में लिखा है कि मेवाड़ के महाराणा को हिन्दु लोग भगवान राम का प्रतिनिधि मानते हैं ।
मेवाड़ के राजवंश का आदि पुरुष गुहिल छठी शताब्दी में हुआ था । यह वह समय था कि जब अरब में मुहम्मद ने इस्लाम की फिलासफी का आरम्भ किया था और वहां प्रचलित सभी धमाँ की तलवार के बल से समाप्त कर दिया था ।

ऐसे समय में गुहिल राजवंश की स्थापना भारत की रक्षा के लिये अत्यंत मंगलदायी थी मानो प्रकृति ने भारत पर भविष्य में होने वाले विदेशी मुस्लिम आक्रमणों का प्रतिरोध का सूत्रपात किया हो ।

जिस प्रकार शंकराचार्य ने चार धाम स्थापित करके भारत की एकता को शक्ति प्रदान की तथा मंदिरों के निर्माण करवा कर इस्लाम से बचाव का मार्ग प्रशस्त किया उसी प्रकार शंकराचार्य के पूर्व गुहिल राजवंश की स्थापना भारत के राजनैतिक स्वतंत्रता संग्राम तथा भारत की प्रतिरक्षा के लिए प्रकृति की अनुपम देन सिद्ध हुई।

प्रो. डा. गोपीनाथ शर्मा ने मेवाड़ के राजवंश के लिए यह भावना व्यक्त की है (Mewar and the Mughals Page 160) - No ruling family in our mediaeval history ever put-up so consistent and stubborn a resistance against the establishment of foreign rule in the land as did the Sisodias of Chitor. The early rulers of this dynasty took part in the movement of checking the expansion of the Arabs into Gujarat, Kathiavad and north-western Rajasthan.
Next they measured swords with theearly Turks who after their initial success of establishing Delhi as their capital pursued for centuries the agressive policy of reducing the whole of India to submission. It was inevitable that the ruling family of Mewar should have come into conflict with the expansionist tendencies and religious activities of the Turks and to nullify the fulfilment of their ardent dream."

"The story of Mewar's resistance against the Mughals is a splendid record of material and glorious deeds and noble actions of the rulers and people alike. The admiration one feels of their heroic character enhances as one reflects that the tiny state had no adequate resources and had to fight against odds."

6 अप्रेल, 1955 के दिन प्रधानमंत्री श्री नेहरू चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर गए और वहां भारत । राष्ट्रीय ध्वज फहराया ।

1956 के लगभग ही भारत के राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद मेवाड़ के महाराणा भगवत सिंह और राजस्थान के राज प्रमुख महाराजा सवाई मानसिंह के साथ हल्दीघाटी गए और प्रताप से संघर्ष को भारत की स्वतन्त्रता से जोड़ा ।

1956 में प्रधानमंत्री श्री नेहरू मेवाड़ के महाराणा भगवत सिंह को दिल्ली के लाल किले है गए और इस प्रकार उन्होंने प्रताप की सौगंध को पूरा करवाया।

21 जून, 1976 के दिन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने हल्दीघाटी युद्ध के 400 वर्ष के समारोह में हल्दीघाटी जाकर प्रताप को श्रद्धांजलि दी और प्रताप जयन्ती पर राज्य सरकार द्वारा अवकाश का प्रतिवर्ष प्रावधान करवाया |

(उदयपुर राज्य का इतिहास प्रथम-गौ.ही. ओझा)
(Mewar and the Mughals - Dr. G.N. Sharma)

Friday, 24 March 2017

भारत के विकास और समृद्धि का सबसे बड़ा विनाशकाल

भारत पर इस्लामी आक्रमण

Indian Holocaust

"Hellfire"- Maxmuller  "Barbaric"- James Tod.


भारत के लोगों ने हजारों वर्ष के इतिहास में किसी दूसरे देश पर कभी आक्रमण नहीं किया । पर मुसलमानों ने पहले अरब के लोगों को हिंसा के बल पर मुसलमान बनाया और फिर थाप में दूसरे देशों को मुसलमान बनाने और लूटने के लिये आक्रमण किये।
इस प्रकार 636 ई. में अरब के मुसलमानों ने भारत के महाराष्ट्र और फिर सिंध प्रदेश पर आक्रमण किया और वहाँ हिन्दुओं और बौद्धों ने विकट संग्राम किया।

सिंध पर अधिकार करके 725 ई. से उन्होंने राजस्थान पर आक्रमण प्रारम्भ किये जो रुक रुक कर चलते रहे। 1192 ई. में तुर्क मुसलमानों ने पृथ्वीराज चौहान के विरूद्ध सफलता प्राप्त  की और इस प्रकार पहले तुर्क मुसलमान फिर अफगानी और मुगल मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण किए।

भारत पर मुसलमानी आक्रमणों की प्रकृति इस प्रकार थी 

1. पूरे देश में लगभग 30 हजार मंदिर तोड़े गए जो अरबी, फारसी के मुस्लिम लेखकों ने दर्ज किए है
   पढ़े- " Hindu temples what happened to them, "Islamic Evidence"  भाग और 2 by Sitaram Goel, Aditya Prakashan, New Delhi.

पांच प्रमुख मंदिर थे जिनका स्थान नहीं बदला जा सकता-

A. अवतार भूमि- अयोध्या में रामजन्म भूमि मंदिर को बाबर ने 1528 ई. में तोड़कर वहाँ "फ़रिस्तों के उतरने" का भवन बना दिया 

B. कृष्ण जन्म भूमि- यहाँ 1615 ई. के लगभग वीरसिंह देव बुन्देला ने 33 लाख रुपयों से भव्य मंदिर बनाया था जिसे औरंगजेब ने तोड़ वहाँ मस्जिद बना दी जो अभी भी है

C. ज्योतिर्लिंग भूमि- गुजरात में सोमनाथ मंदिर को महमूद गजनवी ने 1025 ई में तोड़ा और लुटा । 1314 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने और फिर औरंगजेब ने कुल तीन बार तोड़ा और लुटा और मस्जिद बना दी। आजादी के बाद Dr.K.M मुन्शी के प्रयास से जामनगर के जाम साहब और गुजरात के राजप्रमुख महाराजा दिगविजय सिंह और भारत के उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने वर्तमान मंदिर उसी भूमि पर मस्जिद को हटाकर बनाया जिसकी प्राण प्रतिष्ठा तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने की ।

D. 1234 में इल्तुमिश ने उज्जैन के महाकाल ज्योतिर्लिंग मंदिर को तोड़कर वहीं पर मस्जिद बना दी जिसे 1734 ई के लगभग ग्वालियर के राजा राणोजी सिंधिया ने दीवान रामचन्द्रराव सेणवी द्वारा उसे तोड़कर फिर महाकाल मन्दिर बना दिया 

E. वाराणसी में काशी विश्वनाथ मन्दिर को औरंगजेब ने तोड़ वहाँ मस्जिद बना दी जो अभी भी है

F. जहाँगीर ने काँगड़ा के भवानी मन्दिर को तोड़ वहाँ गौ हत्या की और फिर वहाँ मस्जिद बनवाई। उसने पुष्कर में वराहजी के मंदिर को तोड़ा और पवित्र सरोवर में शिकार की।

शाहजहाँ ने नए मन्दिर बनाने  पर रोक लगाई और पुराने मन्दिरों की मरम्मत पर रोक लगाई 
The Mugal Empire- Bhartia Vidhya Bhawan, Mumbai.

2. देव प्रतिमाओं को तोड़कर मस्जिदों की सीढ़ियों में लगाया गया।

3.सारे देश में भीषण नरसंहार किए। साधु सन्यासियों को भी नहीं छोड़ा। इतिहास में केवल कुछ ही दर्ज हुए है
तैमूर ने एक लाख हिन्दू बन्दियों को मारा 
बलबन ने एक लाख मेव  राजपूतों को अलवर क्षेत्र में मारा।

जलालुद्दीन खिलजी ने हिन्दुओं के रक्त की नदियाँ बहा दी। आशिका अ. खुसरो, अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ जीतने के बाद के बाद 30 हजार निहत्थे हिन्दुओं को मारा अकबर ने चित्तौड़ में 30 हजार निहत्थे हिन्दुओं को मारा 1627 में अब्दुला अजबेग ने दो लाख हिन्दुओं का संहार किया और 5 लाख हिन्दुओं को दास बनाया जो मुसलमान बन गए।

4.जजिया टेक्स लगाया- हिन्दुओं को अपने जीवित रहने के लिए मुसलमान आक्रमणकारियों को जजिया टेक्स देना पड़ता था। अमीर खुसरो लिखता है कि यदि जजिया टेक्स नहीं होता तो हिन्दुस्तान का नाम निशान मिट जाता। बीमार और अपंग से भी जजिया लिया गया।

5.लगान- हिन्दुओं पर मुसलमानों की तुलना में बहुत लगान था। अलाउद्दीन खिलजी ने 50 प्रतिशत लगान लगाया। खिलजी ने हिन्दुओं को लकड़ी काटने और पानी भरने लायक ही छोड़ा।

6.दास बनाना- अलाउद्दीन खिलजी ने सोमनाथ मंदिर को तोड़कर वहाँ 20 हजार हिन्दू लड़कियों को दास बनाया। तैमूर ने सिरसा (हरियाणा) में हजारों हिन्दू लड़कियों को दास बनाया। हिन्दुओं की स्त्रियाँ कभी भी सुरक्षित नहीं थी।
महमूद गजनवी ने 5 लाख हिन्दुओं को दास बनाया। अकबर के हरम में 5 हजार लड़कियाँ थी।
(Akbar by Munnilal) (Mugal Haram-K.S. Lal)

7. हिन्दुओं की पुस्तकों को ग्रंथों कोजलाया गया। मोहम्मद बख्तियार खिलजी ने नालन्दा और ओदन्तपुरी विश्वविद्यालय जलाया। पाटनगुजरात के महाग्रन्थागार को अलाउद्दीन खिलजी ने जलाया
कोहना के संस्कृत भण्डार को फिरोज तुगलक ने जलाया। राजा भोज परमार के धार स्थित संस्कृत विद्यापीठ और राजा बीसलदेव चौहान के सरस्वती कंठाभरण को अजमेर में तोड़करजलाया गया
टीपू ने मैसूर का संस्कृत पुस्तकालय जलाया। औरंगजेब को जहाँ भी हिन्दुओं के ग्रंथ मिलते उन्हें जलवा देता।

बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह दक्षिण से ऐसे हजारों ग्रंथों को बचाकर बीकानेर ले आए जो यहाँ संग्रहित हैं।

8. Bruno Giordano (1548-1599)
जिओरडन ब्रूनो इटली का दार्शनिक था जिसे पोप Innocent III ने उसके स्वतन्त्र विचारों के कारण रोम में जिन्दा जलवा दिया था, परन्तु भारत में उसके 212 वर्ष पहले ही 1387 मे दिल्ली के एक ब्राह्मण को मूर्तिपूजा नहीं त्यागने के कारण फिरोज तुगलक ने जिन्दा जलवा दिया

9. 1739 ई. में नादिरशाह और 1761 ई. में अहमदशाह के आक्रमण स्वरूप विनाशकारी कत्लेआम हुआ 

10. मुसलमानों ने भारत को कितना लूटा इसका संक्षिप्तवर्णन इस पुस्तक के अध्याय 5 मैं किया गया है। यह सब कृत्य मानव मूल्यों और नैतिक मूल्यों के विरूद्ध थे ।
संक्षेप  में मैक्समूलर के शब्दों में भारत पर मुसलमानी राज्य के भयानक अत्याचारों के बारे में पढ़ने के बाद मुझे आश्चर्य है कि इतनी स्वदेशी, सच्चाई और पवित्रता भारत में आज भी बच रही है 

"जब तुम मुसलमान आक्रमणकारियों के अत्याचार महमूद गजनवी से लेकर अंग्रेजों के आगमन तक का वर्णन पढ़ते हो तो मुझे आश्चर्य इस बात का है कि कैसे एक नरकाग्नि से यह देश जीवित बच रहा "

परन्तु हमारे ऋषि मुनियों का पुण्य जागा और धीरे-धीरे भारत से मुस्लिम शासन का अन्त हुआ 

इतिहास बोध के बिना मानव के विकास और अवरोध-विनाश को समझा नहीं जा सकता।
775 ई. से 1192 ई. तक का काल विदेशी आक्रमणों पर सफलता पूर्वक विजय का  काल रहा और 1192 ई. से 1761 ई. का काल मुस्लिम सत्ता का प्रतिरोध करने का काल रहा 

रावर दुर्ग:-

रावर दुर्ग:-


रावर राजकुमार जैसिया बच कर रावर दुर्ग लौटा। वहां राजा दाहर की रानी बाई ने राजकुमार जैसिया को भावी संघर्ष करने ब्राह्मणाबाद भेज दिया और स्वयं ने मोर्चा लिया । मोहम्मद कासिम ने रावर दुर्ग की जा घेरा और युद्ध शुरू हुआ परन्तु हार निश्चय जान रानी बाई ने सारी भारतीय स्त्रियों के साथ जौहर स्नान किया ।

भारत के इतिहास का यह प्रथम जौहर था। इसके बाद हजारों भारतीयों ने अरबी मुसलमानों से विकट युद्ध कर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया ।

रावर दुर्ग के बाद मोहम्मद कासिम ने सिंध के दूसरे प्रदेशों पर अभियानों में सफलता पाई।राजकुमार जैसिया ने ब्राम्हणबाद में 6 महीने और बाद में जीवनभर संघर्ष किया और बड़ी बहादुरी और देश भक्ति का परिचय दिया और अन्त में काम आया । भारतीयों का पुनर्जागरण (715 ई. से 733-41 ई.) के मध्य कोकनान और अर्लौर के जाट और मेढ़ हिन्दुओं ने अरबी सुल्तानों से जम कर लोहा लिया था । जगह-जगह भारतीयों ने अपने शक्ति केन्द्र बना लिए ।

871 ई. तक सिंध प्रदेश से खलीफा का नियन्त्रण जाता रहा । 912-976 ई. मध्य के अरब यात्री वर्णनों से पता चलाता है कि सिंध में केवल मुल्तान और मन्सूरा पर ही अरबों का राज बचा था ।
915 ई. में अलमसूदी लिखता है कि सिंध में अरब इसलिए बच गए क्योंकि जब भी भारतीय सेना आने लगती है मुसलमान मुल्तान के प्रसिद्ध मंदिर को तोड़ने की धमकी देते थे इसलिये सेनाएं रुक जाती थी । अंग्रेज इतिहासकार वूल्जे हेग लिखते हैं कि इस्लाम की जोशीली धारा जो सिंध और निचले पंजाब को डुबोने आई थी केवल एक नाले के रूप में रह गई। ' (कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया तृतीय) ।

सिंध विजय के 150 वर्ष बाद अरब व्यापारी सुलेमान लिखता है कि भारत और चीन में न तो किसी ने इस्लाम स्वीकार किया और ना ही कोई अरबी बोल सकता है ।

(पूर्ववर्ती मुस्लिम आक्रान्ताओं का भारतीयों द्वारा प्रतिरोध - 1206 ई. तक - डॉ. रामगोपाल मिश्र, पीएच.डी. स्वीकृत शोध ग्रंथ, मेरठ विश्वविद्यालय)

राजपुताना बनाम राजस्थान

राजपुताना बनाम राजस्थान


आजकल फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया माध्यमों पर ऐसे बन्नाओं की भारी भीड़ उमड़ी हुई है जो एक दूजे की देखादेखी में "जय राजपुताना-जय राजपुताना" या फिर "राजपुताना स्थापित करेंगे" आदि लिखते रहते हैं। "जय राजपुताना" लिखना या नारा लगाना कोई गलत बात नहीं पर साथ में यह संदेश देना की #राजस्थान लोकतान्त्रिक व्यवस्था द्वारा थोंपा हुआ नाम है ?
यह एक बड़ी भ्रान्ति है। ऐसा लिखने वालों को दरअसल मालूम ही नहीं है कि राजपुताना और राजस्थान में असल फर्क क्या है? 

राजपुताना अपने आप में छोटी भौगोलिक एजेंसी थी, जबकि राजस्थान उसके मुकाबले बहुत बड़ा है। कुछ भाग वर्तमान गुजरात/मध्यप्रदेश में चला गया पर बहुत सा आ भी गया। यह मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह जी, महाराजा हनवंत सिंह जी और महाराजा सवाई मान सिंह जी की सूझबूझ थी जो वर्तमान राजस्थान बना।

भूपाल सिंह जी ने ही राजपूताने का नाम बदल कर राजस्थान रखवाया जिसमे ब्रज/मेवात को भी जोड़ा गया। दीर्धकालिक दृष्टि से उनका विज़न अच्छा था, क्योंकि फ़ेडरल स्टेट में आर्थिक तंत्र और प्रशासन कैसे चलेगा वह उन्हें भली भांति मालूम था। तो फिर आज कल बन्ने फिर से राजपुताना स्थापित करने पर क्यूँ तुले हैं?

राजस्थान नाम भी कोई थोंपा हुआ नाम नहीं है, यह मेवाड़ महाराणा की इच्छा अनुसार रखा गया था। उनकी रियासत में आजादी से पूर्व ही बैंक ऑफ़ राजस्थान था, वहीँ से #राजस्थान नाम लिया गया है। आज कल बैंक ऑफ़ राजस्थान का विलय आईसीआईसीआई बैंक में हो गया है।

साभार - Jitender S Shekhawat

Wednesday, 22 March 2017

राव सांगा राठौड़ बीदासर (1529-1544)

राव सांगा राठौड़ बीदासर (1529-1544)



राव सांगा बीदासर, राजपुताना की सयुक्त सेनाओ (allied forces) के सर्वोच्च कमांडर थे जिनकी भुजाओं पर मुगल बादशाह बाबर के पुत्र एवं लाहौर के सुल्तान कामरान द्वारा 1534 ई. में बीकानेर पर हुए आक्रमण का सामना करने का भार था !

छंद राव जैतसी रो (1534-1541 ई.) के छंद 239 का राव सांगा के लिए ऐसा लिखा है- 

ग्वालेर ठवई पई पात गती 
उन्हउ ऊछेह ऊछलइ अति 
सांगलउ चडिय करि सहि सार 
भारत्थ तणउ जई भुज्जी भार !!

Gwaler would walk with a graceful air like the movement of a leaf floating in the air but this very hot-headed horse used to jump continuously, Sanga the supreme commander of the Allied Forces, on whose shoulders lay the whole burden of this battle, mounted this charger.

राजपुताना के निम्नलिखीत स्थानों के राजपूत योद्धा देश रक्षा के लिए बीकानेर आकर लड़े थे !
जैसलमेर, आमेर अमरसर, सिरोही, आबू, सांचौर, बिदासर, पूंगल, अजमेर, बूँदी, अमरकोट, सिंध, जालौर, खेड़-मारवाड़, पाली-मारवाड़ के सिरवो !

संदर्भ- छंद राव जैतसी रो अनुवाद 

Tuesday, 21 March 2017

राजा दिलीप

राजा दिलीप

राजा दिलीप अयोध्या के सूर्यवंशी राजा थे। दिलीप के कोई पुत्र नहीं हुआ इस हेतु उन्होंनें गो सेवा का संकल्प लिया। उन्होंनें एक गाय की सेवा करनी शुरू की जिसका नाम नन्दिनी था। एक दिन हिमालय के जंगलों में राजा दिलीप जब इस गाय को चरा रहे थे तब वहाँ एक शेर आया और उसने नन्दिनी पर आक्रमण किया। राजा दिलीप ने नन्दिनी की रक्षा हेतु अपने धनुष से शेर पर बाण चलाया परन्तु वह बाण नहीं चला। शेर ने राजा से कहा कि राजा तुम मुझे नहीं मार सकते - मैं बहुत भूखा हूँ और अपनी भूख मिटाने हेतु इस गाय का भक्षण करूंगा।

राजा दिलीप ने शेर से कहा कि तुम्हें अपनी भूख मिटाने के लिए भोजन चाहिए तो तुम इस गाय को छोड दो मैं अपने आपको तुम्हें समर्पित करता हूँ। मेरे शरीर से तुम अपनी भूख मिटाओ। शेर ने राजा से कहा राजा तुम कैसे प्राणी हो, एक पशु मात्र के लिए अपने आप को समर्पित कर रहे हो ? राजा ने फिर कहा तुम्हें इससे क्या लेना तुम अपनी भूख मिटाओ-मैं क्षत्रिय हूँ और तीनों लॉकों में यह प्रसिद्ध है कि 'क्षय तृणात इति क्षत्रिय’ यानी जो विनाश से बचाता है वह क्षत्रिय है। राजा दिलीप के इस समर्पण से शेर ने नन्दिनी को छोड दिया इस तरह स्वयं को समर्पित कर राजा दिलीप ने गौ की रक्षा की।

महाराज रन्तिदेव

महाराज रन्तिदेव

महाराज रन्तिदेव महाराज संकृति के पुत्र थे। रन्तिदेव धर्मात्मा और महान अतिथि सेवक थे। वे अतिथि की इच्छा को जानकर ही उसे पूरा करते थे महाराजा के यहाँ प्रतिदिन हजारों की संख्या में अतिथि आते थे और वे प्रतिदिन उनकी इच्छाओं की पूर्ति करते। अतिथि सेवा में महाराज का सब खजाना खाली हो गया और उनके पास आने वालों को देने के लिए कुछ भी नहीं बचा। इस पर रन्तिदेव ने राजपाट और राजमहल छोड दिया और स्त्री पुत्र के साथ जंगल में चले गये |

महाराज रन्तिदेव क्षत्रिय थे और क्षत्रिय कभी भिक्षा नहीं माँगते। उन्होंनें जंगल में कन्द मूल फल आदि खाकर ही अपना निर्वाह किया। एक समय राजा रन्तिदेव अपने पुत्र व स्त्री के साथ चलते चलते ऐसे जंगल में पहुंचे जहाँ फल, फूल कंद मूल आदि खाने को कुछ भी नहीं मिले यहाँ तक कि पेडों के पते भी नहीं मिले उस वन में जल भी नहीं था। भूख प्यास से रानी और राजकुमार तडपने लगे। अडतालीस दिन इस तरह बीत गये परन्तु पानी की एक बूद तक नहीं मिली। उनचासवें दिन राजा उस वन के बाहर पहुंचे। वन के बाहर पहुँचने पर राजा ने एक बस्ती में प्रवेश किया, वहाँ राजा को एक मनुष्य ने खाने को भोजन और पिने को पानी दिया, महाराज ने भगवान को भोग लगाया पर महाराज के मन में एक मलाल उठ रहा था कि आज बिना किसी अतिथि को खाना खिलाये उन्हें भोजन करना पडेगा।

इतने में ही वहाँ एक ब्राह्मण आ गया उसने राजा से भोजन माँगा राजा ने पहले ब्राह्मण को आदर से भोजन कराया। उसमें से जो भोजन बचा उसे राजा ने अपनी पत्नी और पुत्र को भोजन कराया। उसमें से जो भोजन बचा उसे राजा ने अपने खाने हेतु रक्खा। ज्यों ही राजा भोजन करने बैठ रहे थे इतने में ही एक भिखारी आ गया और भोजन माँगने लगा राजा ने बचा हुआ भोजन उस भिखारी को खिलाकर उसकी भूख मिटाई। अब राजा के पास केवल पीने को पानी बचा हुआ था। राजा अपनी प्यास बुझाने हेतु पानी पीने जा रहा था तभी एक चाण्डाल। वहाँ आ गया और कहने लगा कि प्यास के मारे उसके प्राण निकल रहे हैं थोडा पानी है तो पिला दो। राजा ने सहर्ष उस चाण्डाल को वह जल पिला दिया।
राजा रन्तिदेव इसके पश्चात् भूख प्यास के मारे मूच्छिंत होकर गिर पड़े। उसी समय वहाँ भगवान ब्रह्म, विष्णु और महेश व धर्मराज प्रकट हो गये और बोले राजा हम आपकी अतिथि सेवा से बहुत प्रसन्न हैं और उसी के फलस्वरूप यहां प्रकट हुए हैं। धन्य है राजा रन्तिदेव और धन्य है उनकी अतिथि सेवा।

Monday, 20 March 2017

महाराज शिवि

महाराज शिवि


राजा शिवि एक दिन अपने दरबार में बैठे हुए थे। उसी समय एक कबतूर उनकी गोद में आकर गिरा। कबूतर बहुत ही डरा हुआ था। कबूतर राजा के कपडों में छिपने लगा, राजा कबूतर को अपने हाथों में पकड कर उसे पुचकारने लगा। इतने में ही एक बाज उडता हुआ वहाँ आया और राजा के सामने बैठ गया। बाज ने राजा से मनुष्य की बोली में कहा- राजन आप मुझे मेरा भोजन दे दीजिये। मुझे भूख लग रही है यह कबूतर मेरा भोजन है। राजा शिवि ने बाज से कहा- कि तुम कोई साधारण पक्षी नहीं लगते हो तुम्हें भूख लग रही है तो मैं तुम्हारी भूख मिटाऊँगा पर इस कबूतर को मैं तुम्हें नहीं दे सकता यह कबूतर मेरी शरण में आया हुआ है। शरण में आये हुए की रक्षा करना मेरा धर्म है। बाज ने राजा से कबूतर को देने हेतु खूब अनुनय विनय की परन्तु राजा ने शरण में आये हुए कबूतर को देने से इन्कार कर दिया और कहा कि तुम्हारी भूख मिटाने हेतु मैं और प्रबन्ध कर दूँगा।


इस पर बाज ने कहा मुझे भूख मिटाने हेतु ताजा मांस चाहिए मैं तो ताजा मांस खाने वाला पक्षी हूँ । राजा ने फिर विचार कर यह निर्णय किया कि किसी दूसरे प्राणी को मारने के बजाय क्यों न मैं अपना मांस इस बाज को दे दूं और बाज से कहने लगे कि मैं अपना ताजा मांस ही तुम्हें खाने को दूंगा तुम उससे अपनी भूख मिटाना।

बाज ने राजा से कहा कि राजा आप एक छोटे से पक्षी के लिए अपने शरीर का मांस क्यों दे रहे हैं। राजा बोले किसी प्राणी का जीवन बचाने हेतु यदि शरीर का उपयोग हो जावे तो उससे उत्तम कार्य और क्या होगा। इसके पश्चात् राजा ने वहाँ तराजू मंगवाया । तराजू के एक पलड़े में राजा ने कबूतर को बैठाया और दूसरे पलड़े में राजा ने अपने हाथ से अपने बांये हाथ को काटकर रख दिया परन्तु इससे तो कबूतर का पलडा उठा भी नहीं।

तत्पश्चात् राजा ने अपना पैर काटकर रखा फिर भी कबूतर का पलडा भारी ही रहा तो राजा स्वयंम् फिर पलड़े में बैठ गये और बाज से बोले कि अब तुम मेरे शरीर को खाकर अपनी भूख मिटाओ। राजा के बैठते ही कबूतर वाला पलडा ऊपर उठ गया और वहाँ उपस्थित लोगों ने देखा कि जो बाज था वह साक्षात् इन्द्र के रूप में प्रकट हो गया। इन्द्र शिवि से बोले कि हमनें यह सब आपकी परीक्षा लेने हेतु किया था। आपका यश सदैव अमर रहेगा।

सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र

सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र


राजा हरिशचन्द्र सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु के पुत्र थे। राजा हरिशचन्द्र बड़े धर्मात्मा और सत्यवादी थे। राजा हरिशचन्द्र की कीर्ति सब लोकों में फैल गई, राजा इन्द्र को यह बात अच्छी नहीं लगी। राजा हरिशचन्द्र की छवि को खराब करने हेतु इन्द्र ने राजा की परीक्षा लेने हेतु जाल रचा और विश्वामित्रजी को राजा की परीक्षा लेने के लिये उकसाया। महर्षि विश्वामित्र ने स्वप्न में राजा द्वारा अपने सम्पूर्ण राज्य का दान करना दिखाया और दूसरे दिन महर्षि स्वयं राजा हरिशचन्द्र के सम्मुख उपस्थित होकर कहने लगे कि आपने अपना सम्पूर्ण राज्य मुझे दान कर दिया है वह मुझे दे दें। राजा हरिशचन्द्र ने स्वप्न में दान किये हुए राज्य को विश्वामित्रजी को दे दिया और अपनी रानी व पुत्र के साथ सब राज पाट छोडकर काशी आ गये।

राजा हरिशचन्द्र जब अपना राज्य छोडकर रानी और पुत्र के साथ चलने लगे तब ऋषि ने कहा कि आपने राज्य का तो दान कर दिया परन्तु दान बिना दक्षिणा के सफल नहीं होता अत: राजा दक्षिणा में एक हजार सोनें की मोहरें और दें। राजा हरिशचन्द्र ने जब अपना राज्य ही दान में दे दिया था तब राजा के पास अब एक हजार सोनें की मोहरें देने को कहाँ थी। राजा ने इसके लिए ऋषि से समय माँगा।

राजा हरिशचन्द्र ने दक्षिणा चुकाने के लिए रानी शैव्या को काशी में एक ब्राह्मण के घर दासी का काम करने हेतु रखा और स्वयं एक चाण्डाल के यहाँ नौकरी की। चाण्डाल ने राजा को शमशान घाट की चौकीदारी दी और यह कार्य सौंपा कि कोई भी वहाँ मुर्दा जलाने आवे उससे मरघट का कर लेकर ही मुर्दा को जलाने देना। समय बडा बलवान होता है जब दुर्दिन आते हैं तो अनेक कष्ट एक साथ लेकर आते हैं कहाँ तो विशाल साम्राज्य का राजपाट और फिर उस विशाल साम्राज्य की रानी को दासी का कार्य करना पडे और राजा को चाण्डाल के यहाँ नौकरी कर शमशान घाट की चौकीदारी। फिर भी कष्टों का अन्त नहीं हुआ।

लडका रोहिताश्व, ब्राह्मण जिसके यहाँ रानी शैव्या दासी का कार्य करती थी उसके लिए पूजा के फूल लेने गया। वहाँ उसे साँप ने काट लिया। साँप के काटने से रोहिताश्व की वहीं मृत्यु हो गई। महारानी शैव्या रोती बिलखती पुत्र की लाश के पास पहुँची रोहिताश्व अब मृत अवस्था में जमीन पर लेटा था। महारानी रोती बिलखती रोहिताश्व की देह को हाथों में उठाकर दाह संस्कार हेतु शमशान पहुँची। शमशान घाट पर राजा हरिशचन्द्र चौकीदार का काम कर रहे थे। उन्होंनें रानी से मरघट का कर देने को कहा।

रानी ने राजा को पहचान लिया और कहने लगी कि महाराज यह तो आपका ही पुत्र है मेरे पास तो इसका तन ढकनें हेतु कफन तक भी नहीं है। मेरे पास कर देने को पैसा कहाँ है। पुत्र की लाश देख कर और रानी की व्यथा सुनकर राजा का गला भर आया। द्रवित हृदय से राजा ने रानी से कहा कि मैं अपने कर्तव्य से बंधा हुआ हूँ- बिना कर दिये यहां कोई मुर्दा नहीं जला सकता। रानी ने राजा से फिर अनुनय विनय की पर राजा ने बिना कर दिए मृत देह को जलाने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। रानी फूट-फूट कर रोने लगी और बोली मेरे पास कर देने को कुछ नहीं है मेरे शरीर पर जो साडी मैंने पहन रखी है वही है इसी में से आप आधा हिस्सा ले ली और मुझे पुत्र की अन्त्येष्टि करने दो।
रानी ने ज्यों ही अपने शरीर पर लिपटी हुई साडी फाड़नी शुरू की तब ही भगवान नारायण, इन्द्र, धर्मराज और विश्वामित्र वहाँ प्रकट हुए। ऋषि विश्वामित्र ने बताया कि यह सब राजा तुम्हारी परीक्षा लेने हेतु योगमाया से दिखलाया था उसमें आप सफल हुए हो।

राजा हरिशचन्द्र पर दोहा प्रसिद्ध है
चन्द्र टरै सूरज टरे , टरै जगत व्यवहार ।
पै दृढ़ व्रत हरिशचन्द्र को टरै न सत्यविचार ।