मेवाड़ का राजवंश
(मर-मर अमर रहो मेवाड़) 566-1707 ई.
Nature's defense
mechanism
सम्राट अशोक देवनामप्रिय प्रियदर्शीं के महान् मौर्य राजवंश के अवसान
पर उत्तराधिकारी बना कर चित्तौड़ में एक तेजस्वी गुहिलोत
वंश के भारत की आत्मा, अस्मिता और गौरव की रक्षा का कार्य संभाला ।
इसलिए यह कोई आश्चर्य नहीं कि 1950 ई. में देशी राज्यों के विलय के समय सम्पूर्ण भारत में भारत सरकार ने केवल मेवाड़ के महाराणा को महाराज प्रमुख बनाया और दूसरों को केवल राजप्रमुख बनाया ।
इस वीर गुहिलोत वंश की भूमि मेवाड़ का ऐसा रोमांचकारी इतिहास है
जिसकी बराबरी का इतिहास अन्य कहीं नहीं मिलता । इसकी परंपरा और इतिहास ने यहां के
राजाओं और नागरिकों के वीर कृत्यों को संजोया है जिनके द्वारा उन्होंने अपने देश, धर्म, सभ्यता और संस्कृति की एक हजार वर्ष तक
रक्षा की कि जिससे उसे आश्चर्यजनक विशिष्टता प्राप्त हो गई।
परम्परानुसार मेवाड़ के राणा सूर्यवंशी तथा रघुवंश क्षत्रिय थे तथा
समस्त हिन्दू समाज एकमत होकर मेवाड़ के राणाओं को भगवान राम का उत्तराधिकारी मानता
है और उन्हें 'हिन्दुआ सूरज' कहता है। राणा क्षत्रियों के 36 राजवंशों में सर्वोपरि माने जाते हैं।
भारत के सभी राजपूत राजा मेवाड़ के महाराणाओं को शिरोमणी मान कर उनकी
ओर सदा पूज्य भाव रखते आए हैं। उनके इस महत्व का कारण उनकी स्वतंत्रप्रियता और
अपने धर्म पर दृढ़ रहना है।
मुसलमानों के राज्य की शक्ति के आगे सैकड़ों हिन्दू राजाओं को
नतमस्तक होना पड़ा परन्तु मेवाड़ का राजवंश जो कि संसार के प्राचीनतम राजवंशों में
एक है ने सभी दु:ख और विपत्यिां उठा कर भी भारत का भाल और गौरव सदा उन्नत रखा ।
बाबर ने तुजुके बाबरी में लिखा है कि हिन्दुओं में विजयनगर के सिवाय
दूसरा प्रबल राजा राणासांगा है जो अपनी वीरता और तलवार के बल से शक्तिशाली हो गया
है। मुसलमानों के अधीनस्थ देशों में भी 200 नगरों में राणा का झंडा फहराता था जहां
मस्जिदें तथा मकबरे बर्बाद हो गये थे । उसके आधीन 10 करोड़ की आय का प्रदेश है ।
जहांगीर ने तुजुके जहांगीरी में लिखा है कि मेवाड़ के राणाओं ने आज
तक किसी नरेश के आगे सिर नहीं झुकाया था । एचिसन ट्रोटीस में लिखा है कि मेवाड़ के
महाराणा को हिन्दु लोग भगवान राम का प्रतिनिधि मानते हैं ।
मेवाड़ के राजवंश का आदि पुरुष गुहिल छठी शताब्दी में हुआ था । यह वह
समय था कि जब अरब में मुहम्मद ने इस्लाम की फिलासफी का आरम्भ किया था और वहां
प्रचलित सभी धमाँ की तलवार के बल से समाप्त कर दिया था ।
ऐसे समय में गुहिल राजवंश की स्थापना भारत की रक्षा के लिये अत्यंत
मंगलदायी थी मानो प्रकृति ने भारत पर भविष्य में होने वाले विदेशी मुस्लिम
आक्रमणों का प्रतिरोध का सूत्रपात किया हो ।
जिस प्रकार शंकराचार्य ने चार धाम स्थापित करके भारत की एकता को
शक्ति प्रदान की तथा मंदिरों के निर्माण करवा कर इस्लाम से बचाव का मार्ग प्रशस्त
किया उसी प्रकार शंकराचार्य के पूर्व गुहिल राजवंश की
स्थापना भारत के राजनैतिक स्वतंत्रता संग्राम तथा भारत की प्रतिरक्षा के लिए प्रकृति की अनुपम देन
सिद्ध हुई।
प्रो. डा. गोपीनाथ शर्मा ने मेवाड़ के राजवंश के लिए यह भावना व्यक्त
की है (Mewar and the Mughals Page 160) - No ruling family in
our mediaeval history ever put-up so consistent and stubborn a resistance
against the establishment of foreign rule in the land as did the Sisodias of
Chitor. The early rulers of this dynasty took part in the movement of checking
the expansion of the Arabs into Gujarat, Kathiavad and north-western Rajasthan.
Next they measured
swords with theearly Turks who after their initial success of establishing
Delhi as their capital pursued for centuries the agressive policy of reducing
the whole of India to submission. It was inevitable that the ruling family of
Mewar should have come into conflict with the expansionist tendencies and
religious activities of the Turks and to nullify the fulfilment of their ardent
dream."
"The story of
Mewar's resistance against the Mughals is a splendid record of material and
glorious deeds and noble actions of the rulers and people alike. The admiration
one feels of their heroic character enhances as one reflects that the tiny
state had no adequate resources and had to fight against odds."
6 अप्रेल, 1955 के दिन प्रधानमंत्री श्री नेहरू चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर गए और वहां
भारत । राष्ट्रीय ध्वज फहराया ।
1956 के लगभग ही भारत के राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद मेवाड़ के
महाराणा भगवत सिंह और राजस्थान के राज प्रमुख महाराजा सवाई मानसिंह के साथ हल्दीघाटी
गए और प्रताप से संघर्ष को भारत की स्वतन्त्रता से जोड़ा ।
1956 में प्रधानमंत्री श्री नेहरू मेवाड़ के महाराणा भगवत सिंह को दिल्ली
के लाल किले है गए और इस प्रकार उन्होंने प्रताप की सौगंध को पूरा करवाया।
21 जून, 1976 के दिन प्रधानमंत्री
श्रीमती इन्दिरा गांधी ने हल्दीघाटी युद्ध के 400 वर्ष के समारोह में हल्दीघाटी जाकर
प्रताप को श्रद्धांजलि दी और प्रताप जयन्ती पर राज्य सरकार द्वारा अवकाश का
प्रतिवर्ष प्रावधान करवाया |
(उदयपुर राज्य का इतिहास प्रथम-गौ.ही. ओझा)
(Mewar
and the Mughals - Dr. G.N. Sharma)
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