मेरी जीवन कथा - ठा. ओंकार सिंह बाबरा
तिजारा का इतिहास :-
तिजारा का इतिहास :-
मैं दिनांक 14 मई, 1953 को तिजारा गया, मेरे मित्र श्री प्रहलादराय शर्मा, जिनका स्थानान्तरण भी श्रीगंगानगर हो गया था मेरे साथ तिजारा गये। दूसरे दिन ही वे लौट आये और तीन-चार दिन पश्चात् श्रीगंगानगर चले गये। तिजारा मेवात क्षेत्र का एक ऐतिहासिक कस्बा था जो दिल्ली के मुसलमान बादशाहों के राज्यकाल में कई शासकों के अधीन रहा। सम्राट अकबर के अभिभावक रहे बेहरामखाँ की बेगम मेवात की ही थी। उनके पुत्र अकबर के प्रसिद्ध दरबारी और हिन्दी के विख्यात कवि अब्दुल रहीम खानखाना थे। यह कस्बा कई युद्धों का साक्षी रहा था।
मुगलकाल के उत्तरार्ध में यह अलवर राज्य के संस्थापक माचेड़ी के राव प्रतापसिंह नेरूका को प्राप्त हुआ।
इस विषय में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश डालना आवश्यक है। माचेड़ी का राव प्रतापसिंह नरूका जयपुर राज्य का जागीरदार था। जयपुर दरबार में उनकी सीट (कुर्सी) महाराजा के सिंहासन के पास दाहिनी ओर थी। उसी कुर्सी पर चौमू के जागीरदार की सीट थी। दोनों बारी-बारी से उस कुर्सी पर बैठते थे। चौमू के जागीरदारों पर जयपुर के महाराजा माधोसिंह (प्रथम) की विशेष कृपा थी। एक बार चौमू के ठा. जोधसिंह ने राव प्रतापसिंह को कुर्सी से उठा दिया, इससे प्रतापसिंह नाराज होकर चले गये। उन्होंने मुगल बादशाह से मेलजोल बढ़ाया और कई संघर्षों के बाद दिल्ली के बादशाह की कृपा से अलवर राज्य की स्थापना की।
राव प्रतापसिंह की मृत्यु के पश्चात् अलवर राज्य के राजा बक्तावरसिंह (1790-1815) बने। महाराव बक्तावरसिंह के कोई औरस पुत्र नहीं था, उनकी एक पासवान मूसी रानी के एक पुत्र बलवन्तसिंह था। बलवन्तसिंह की मृत्यु के पश्चात् अलवर राज्य के सिंहासन हेतु उत्तराधिकारी के लिये विवाद उत्पन्न हो गया। एक पक्ष बक्तावरसिंह के अनौरस पुत्र बलवन्तसिंह को राज्य का शासक बनाना चाहता था, दूसरा पक्ष थाना ठिकाने के बनेसिंहजी, जो बक्तावरसिंहजी के सगे भतीजे थे, को सिंहासन पर बैठाना चाहता था। तत्कालीन अंग्रेज सरकार (ईस्ट इण्डिया कंपनी) ने जांच करने के बाद बनेसिंहजी को अलवर का महाराव घोषित किया और बलवन्तसिंह को तिजारा का राज्य दिया। रावराजा बलवन्तसिंहजी ने तिजारा पर शासन बड़ी सफलता से किया।
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