महाराजा भीमदेव सोलंकी द्वितीय की गुजराती सेना और अजमेर के मेर योद्वाओं द्वारा देश धर्म रक्षा 1196 ई.
अजमेर के मेर यौद्धाओं ने लगातार विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लिया था । 1195 ई. में जब कुतुबुद्दीन अजमेर आया तो उसे हराने के लिये मेर वीरों ने योजना बना कर गुजरात के अन्हलवाड़ से सैनिक सहायता के लिये दूत भेजे। इस रहस्य की जानकारी कुतुबुद्दीन को हो गई तो उसने गुजरात की सेना आने से पहले ही मेरों पर आक्रमण कर दिया परन्तु कुतुबुद्दीन जीत नहीं सका, दिन भर युद्ध हुआ ।
अगले ही दिन गुजरात की सेना ने ऐसा भीषण आक्रमण किया कि कुतुबुद्दीन का सेनापति ही मारा गया और भारतीय वीरों ने तुर्को का अजमेर तक पीछा किया । कुतुबुद्दीन एक हमले में घायल हो गया । उसके छ: बड़े घाव लगे, वह बहुत घायल हो गया । उसको छकड़े में डाल कर ले जाया गया । बाद में वह अजमेर के दुर्ग में घिर गया और हिन्दू वीरों ने दुर्ग को घेर लिया। यह घेरा कई महीने तक चलता रहा और इस दौरान क्या हुआ यह मुसलमान इतिहासकारों ने नहीं लिखा - ताजुल मासीर । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ) ।
ताजुल मासीर में लिखा है कि इस विषम स्थिति में एक विश्वस्त संदेशवाहक को गजनी भेजा गया कि वह सुल्तान को काफिरों की सेना का हाल समझाये और उससे आदेश प्राप्त करे कि अब क्या कार्यवाही की जाये । तब एक शाही आदेश जारी हुआ । खुसरू पर सम्मान और कृपायें बरसायी गई और विद्रोहियों का दमन और उन्मूलन उसी की समझ पर छोड़ दिया गया । उसकी सहायतार्थ एक बड़ी सेना भेजी गई जिसके नायक जहां पहलवान असदुद्दीन, अर्सलानकलिज, नासिरूद्दीन, हुसैन, मुबैयिद्दीन बलख का पुत्र इज्जुद्दीन मुहम्मद जराह थे ।
यह सहायक सेना शरद ऋतु के आरम्भ में अजमेर पहुंची और हिन्दुओं को हरा कर इसी सेना ने फिर गुजरात पर आक्रमण करके उसे अधीन किया । अगले कई सौ वर्षों तक मेरों ने हिन्दुत्व की रक्षा की और अड़सी मेर ने 1310 ई. में जालौर में खिलजी मुसलमानों से लोहा लिया था । सुल्तान इल्तुतमिश को भी पुनः अजमेर जीतना पड़ा था ।
अजमेर के मेर यौद्धाओं ने लगातार विदेशी आक्रमणकारियों से लोहा लिया था । 1195 ई. में जब कुतुबुद्दीन अजमेर आया तो उसे हराने के लिये मेर वीरों ने योजना बना कर गुजरात के अन्हलवाड़ से सैनिक सहायता के लिये दूत भेजे। इस रहस्य की जानकारी कुतुबुद्दीन को हो गई तो उसने गुजरात की सेना आने से पहले ही मेरों पर आक्रमण कर दिया परन्तु कुतुबुद्दीन जीत नहीं सका, दिन भर युद्ध हुआ ।
अगले ही दिन गुजरात की सेना ने ऐसा भीषण आक्रमण किया कि कुतुबुद्दीन का सेनापति ही मारा गया और भारतीय वीरों ने तुर्को का अजमेर तक पीछा किया । कुतुबुद्दीन एक हमले में घायल हो गया । उसके छ: बड़े घाव लगे, वह बहुत घायल हो गया । उसको छकड़े में डाल कर ले जाया गया । बाद में वह अजमेर के दुर्ग में घिर गया और हिन्दू वीरों ने दुर्ग को घेर लिया। यह घेरा कई महीने तक चलता रहा और इस दौरान क्या हुआ यह मुसलमान इतिहासकारों ने नहीं लिखा - ताजुल मासीर । (सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध - डॉ. अशोक कुमार सिंह, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी की पीएच.डी. हेतु स्वीकृत शोध ग्रंथ) ।
ताजुल मासीर में लिखा है कि इस विषम स्थिति में एक विश्वस्त संदेशवाहक को गजनी भेजा गया कि वह सुल्तान को काफिरों की सेना का हाल समझाये और उससे आदेश प्राप्त करे कि अब क्या कार्यवाही की जाये । तब एक शाही आदेश जारी हुआ । खुसरू पर सम्मान और कृपायें बरसायी गई और विद्रोहियों का दमन और उन्मूलन उसी की समझ पर छोड़ दिया गया । उसकी सहायतार्थ एक बड़ी सेना भेजी गई जिसके नायक जहां पहलवान असदुद्दीन, अर्सलानकलिज, नासिरूद्दीन, हुसैन, मुबैयिद्दीन बलख का पुत्र इज्जुद्दीन मुहम्मद जराह थे ।
यह सहायक सेना शरद ऋतु के आरम्भ में अजमेर पहुंची और हिन्दुओं को हरा कर इसी सेना ने फिर गुजरात पर आक्रमण करके उसे अधीन किया । अगले कई सौ वर्षों तक मेरों ने हिन्दुत्व की रक्षा की और अड़सी मेर ने 1310 ई. में जालौर में खिलजी मुसलमानों से लोहा लिया था । सुल्तान इल्तुतमिश को भी पुनः अजमेर जीतना पड़ा था ।
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