कोहिनूर (Koh-i-noor)
डाँ. महेन्द्रसिंह तँवर
सबसे नायाब और बेशकीमती हीरे का नाम ’कोहिनूर’ है। इस विश्व में इससे श्रेष्ठ दूसरा कोई हीरा नहीं है। आज यह हीरा ब्रिटेन की रानी के ताज की शोभा बढ़ा रहा है किन्तु कभी यह हीरा भी भारत की शान हुआ करता था। इसने कई शताब्दियाँ देखी, कई राजा-महाराजाओं की शोभा बढ़ाई और कई शताब्दियों का लम्बा सफर तय करता हुआ यह ब्रिटेन पहुँचा। इतने लम्बे सफर की कहानी का इतिहास भी बड़ा रोचक और हैरतअंगेज रहा है।
इस हीरे से संदर्भित इतिहास-संबंधी अनेक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। आदिकाल के महाकाव्यों और पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। साथ ही साथ इससे मध्यकालीन इतिहास और आधुनिक इतिहास की भी प्रचुर मात्रा में जानकारी प्राप्त होती है। कोहिनूर ने कई राज्यों को तबाह किया तो कइयों को आबाद भी किया। साथ ही साथ इसने किसी का भाग्योदय किया तो किसी को जीवनदन भी दिया। इसके सफर को एक अजीबोगरीब दास्तान कहा जा सकता है।
अनेक प्रमाणों और ऐतिहासिक सामग्रियों से प्रमाणित होता है कि विश्व में एकमात्र तंवर जाति ने 2 हजार शताब्दियों तक दिल्ली पर शासन किया था। ऐसा कोई राजवंश नहीं था जिसने इतने लम्बे समय तक एक ही राज्य पर शासन किया हो। कोहिनूर की उत्पत्ति (जिस समय गोलकुण्डा की खान से प्राप्त हुआ) के समय से तोमरों (तंवरों) के पास कई शताब्दियों तक रहा। उसके बाद यह गुमनाम अंधेरे में रहा। ऐसा अनुमान है कि उस अज्ञात काल में भी यह तोमरों के पास ही रहा होगा।
पन्द्रहवीं शताब्दी में तोमर राजा रामशाह ग्वालियर ने इसे हुँमायू को भेंट किया था। उसके पहले वह तोमरों के ही पास रहा। बीच में कुछ अन्तराल के लिए यह अन्य शासकों के पास भी रहा परन्तु इतने लम्बे समय तक वहां नहीं रहा जितना तोमरों के पास रहा। इसलिए आज इस पर किसी का हक बनता है तो सिर्फ तोमरों का ही बनता है अन्यथा किसी भारतीय संग्रहालय में ही रख देना चाहिए।
आज सन् 1947 ई. के पश्चात् 53 वर्षों में पहली बार भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय सत्तारूढ़ सांसदों और विपक्षी दलों ने संसद में कोहिनूर और अन्य भारतीय पुराविद् वस्तुओं को ब्रिटेन से मंगवाने की मांग की थी।
उस पर प्रधानमंत्रीजी ने ब्रिटेन की सरकार को कोहिनूर की वापसी की चर्चा शुरू करने के आग्रह वाला पत्र 18.05.2000 को भेजा था। कोहिनूर के इतिहास पर एक नजर डालते हुए उसके इतिहास को कई चरणों में बांट कर उसका उल्लेख किया जा रहा है जो इस प्रकार है:-
प्रागैतिहासिक कोहिनूर
कोहिनूर का जन्म आज से पांच सहत्र वर्ष पूर्व गोलकुण्डा की प्रसिद्ध खान से हुआ था। एक किसान के हाथों द्वारा इसने संसार को देखा। दीन किसान ने ऐसी मूल्यवान वस्तु को अपने पास न रखकर जगत-विजयी पाण्डवों को अर्पण कर दी। सम्राट् युधिष्ठिर के मुकुट की शोभा कोहिनूर कुछ ही दिन बढ़ा पाया था कि युधिष्ठिर अपना राज्य और ताज दोनों दुर्योधन को दे बैठे। कोहिनूर के चमचमाते प्रकाश ने कौरव राज्य को बहुत ऊँचा उठा दिया किन्तु भाग्यचक्र में पड़कर महाभारत के युद्ध में कौरव सकुटुम्ब मारे गये और कोहिनूर पुनः श्री कृष्ण द्वारा पाण्डवों के हाथ लगा। पाण्डवों के हिमालय में गलने के लिए जाने पर कोहिनूर ने महाराजा परीक्षित के मुकुट की शोभा बढ़ाई।
महाराजा परीक्षित के बाद 34 पीढ़ी तक कोहिनूर इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर की शोभा बढ़ाता रहा। उत्तरी भारत में राजक्रान्तियों और गृह-कलहों ने घर कर लिया। अतः कोहिनूर हस्तिनापुर के नरेषों के हाथ से छिन गया और दक्षिण में देवगिरी के राजाओं के मुकुट की शोभा बढ़ाने लगा।
ऐतिहासिक कोहिनूर
1223 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने भारत के दक्षिण भाग पर आक्रमण किया और तैलंगान-विजय के समय उसे कोहिनूर हीरा प्राप्त हुआ। तब यह हीरा पुनः दिल्ली आया। दिल्ली पहुँच कर उसने पठान बादशाहों के दरबार को सजाया। पठानों की शक्ति के निर्बल होते ही कोहिनूर पुनः ग्वालियर नरेश डूंगरेन्द्रसिंह तंवर के हाथ लगा। 1437 ई. में जब होशंगशाह खिलजी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया तो वह वहाँ पराजित हुआ और उसने तंवरों को विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर व अलाउद्दीन खिलजी की सोने से मंडित तलवार भेंटस्वरूप दी। यह भेंट थी या ग्वालियर नरेश ने उसे पराजित कर लूट में प्राप्त किया था, कुछ कहा नहीं जा सकता। अलाउद्दीन की यह तलवार ग्वालियर के तंवरों के वंशजों के पास आज भी सुरक्षित है।
‘From ALLAH-U-DIN KHILZI, this sword passed on to his son KHIZER KHAN and once to KHILZI emperor of Malwa in 1437 AD. Mahamod Khilzi of Malwa attacked Gwalior, ruled by Dungrendra Singh Tanwar. Mahamad Khilzi was completely ruined and had to surrender KHOINOOER DIAMOND and this Sword of ALLA-U-DIN KHILZI.
The sword the HEIRLOOM of the Tanwars (Tomars) of Gwalior was Presented by Col. Thakur Prithviraj Singhji to his son latent Kr. Bag Singhji First in the INDIAN MILI-TARY ACADMEY, DEHRADUN in 1935 A.D. The sword is not with Th. Laxman Singhji as family HEIRLOOM.
-Lt. Brig. K. Bag Singhji
1437 ई. से लेकर 1526 ई. तक यह हीरा तंवरों के पास रहा। तत्पश्चात् यह हीरा मुगलों को मिला।
20 अप्रैल, 1523 ई. में राजा विक्रमादित्य पानीपत के रणक्षेत्र में धराशायी हुए। उस समय उनका परिवार आगरा दुर्ग में था। आगरा के दुर्ग की रक्षा का दायित्व इब्राहिम लोदी ने राजा विक्रमादित्य के राजकुमार रामसिंह (रामशाह) और उसके चाचा अजीतसिंह को सौंपा था।
पानीपत के युद्ध में विजय प्राप्त होते ही बाबर को लोदियों के खजाने हस्तगत करने की चिन्ता हुई। उनका मुख्य खजाना आगरा में था और कुछ खजाना दिल्ली में था। आगरा में खजाने पर कब्जा करने के लिए सेनापतियों के साथ हुमायूं को तथा यहूदी ख्वाजाओं को दिल्ली भेजा गया।
4 मई 1523 ई. को हुमायूं आगरा पहुँचा। उसने इस भय के युद्ध प्रारम्भ नहीं किया कि कहीं लोग खजाने को भीतर ही नष्ट न कर दें। आगरा में विक्रमादित्य का परिवार और खजाना भी था। ज्ञात होता है कि दादकिरानी और फिरोज खां ने हुमायूं से, अजीतसिंह की अनभिज्ञता से सन्धि की चर्चा प्रारम्भ की और हानि न पहुंचाने का आश्वासन लेकर हुमायूं को किला समर्पित करने का निश्चय किया। अजीतसिंह व राजकुमार रामशाह ने अपने तंवर सामंतों और सैनिकों की सहायता से अपने परिवार और खजाने के साथ मुगलों का घेरा तोड़कर भाग जाना ही उचित समझा। वे इस प्रयास में सफल नहीं हुए और मुगलों ने उन्हें घेर लिया।
हुमायूं को तंवर-कुल के प्रताप की जानकारी हो गई थी। आगरा के गढ़ पर अधिकार करने से पूर्व वह कोई युद्ध करना भी नहीं चाहता था। उसने मुगल सैनिकों को तंवरों को लूटने से रोका और अजीतसिंह ने कृतज्ञता-ज्ञापन में, अथवा हुमायूं को उन्हें सुरक्षित चले जाने देने के लिए सहमत करने के उद्देश्य से अत्यधिक मणि-रत्न दिए जिनमें वह महामणि कोहिनूर भी था।
उस सयम मुगलों के जौहरियों ने इसका मूल्य आंका था। उसका वनज 8 मिस्कल (लगभग 320 रत्ती) था और उसके मूल्य से सारे संसार की आबादी को ढाई दिन (2-1/2) तक भोजन कराया जा सकता था।
इस महामणि के सौदे के बदले राजा विक्रमादित्य का परिवार आगरा से चम्बल के बीहड़ों मे सुरक्षित चला गया। राजा विक्रमादित्य के राजकुमार रामशाह के पाटवी वंशज इस समय केलावा , खेतासर- जोधपुर, राजस्थान में निवास कर रहे हैं। इसी शाखा के लोग बीकानेर, भवाद व दाउसर में रह रहे हैं। उनके पास भाईबंट से अलाउद्दीन खिलजी की तलवार इस समय मौजूद है।
इस महामणि को टेवरनियर नामक यात्री ने औरंगजेब के पास देखा था। यह हीरा सन् 1739 ई. तक मुगलों के ही पास रहा।
सन् 1739 ई. में ईरान के नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया और तत्कालीन मुगल सम्राट् मुहम्मदशाह (1719-1748) से यह हीरा ले लिया।
नादिरशाह ने ही इसका नाम ’कोहिनूर’ रखा था। मुहम्मदशाह ने इस हीरे को अपनी पगड़ी में छिपा लिया था। एक दासी के द्वारा यह भेद नादिरशाह को ज्ञात हो गया। उसने मुगल सम्राट् से मैत्री के प्रतीक के रूप में पगड़ी बदलने का प्रस्ताव रखा। जब नादिरशाह ने पगड़ी बदलने के पश्चात् उसमें से हीरे को निकाला तो वह इस की आभा देखकर चमत्कृत हो गया और उसके मुंह से निकल पड़ा ’कोहिनूर’ अर्थात् प्रकाश का प्रवर्तन। तभी से इस महामणि को कोहिनूर कहा जाने लगा।
नादिरशाह इस महामणि को अधिक समय तक न रख सका। सन् 1747 ई. में उसका कत्ल कर दिया गया और उसका राज्य अहमदशाह अब्दाली ने छीन लिया। राज्य के साथ-साथ अब्दाली को यह हीरा भी प्राप्त हुआ।
सन् 1813 ई. में पंजाब के राजा रणजीतसिंह ने अहमदशाह अब्दाली के वंशज शाह सूजा से हीरा छीन लिया।
महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात ईस्ट इण्डिया कम्पनी ओर पंजाब की सिक्ख सरकार के। बीच युद्ध हुए। सिक्खों ने हारने के बाद सन्धि कर ली जो लाहौर की सन्धि कहलाती हैं । यह सन्धि सन 1849 ई. को हुई थी । सन्धि की धारा में यह भी उल्लेख था की कोहिनूर हीरा जो रानी जिन्दलसे खालसा सरकार ने लिया था , वह महारानी विक्टोरिया के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दिया जाएगा ।लोर्ड डलहोजी ने इसे लेकर सर जॉन लॉरेन्स की हिफ़ाज़त में रखा ।वहाँ इसे मेजर जनरल कनिंघम ने भी देखा था अौर यह अभिमत व्यक्त किया था की यह वही महामणी हैं जिसका उल्लेख बाबर ने अपनी आत्मकथा में किया था ।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रार्थना पर ब्रिटिश जहाजी बेडे़ का ’मीडिया’ नामक जहाज इस इस हीरे को ले जाने के लिए भारत भेजा गया।
लार्ड डलहौजी स्वयं लाहौर जाकर इस हीरे को लेकर बम्बई पहुँचे। उन्होंने अपने दो रिश्तेदार लेफ्टिनेन्ट कर्नल मैक्सन और कैप्टन रेमर्ग को यह हीरा सौंपा कि वे अपनी सुरक्षा से इसे लन्दन ले जाये और इसकी जानकारी किसी और को नहीं दी जाय। 21 अप्रैल 1850 ई. को वह जहाज कोहिनूर हीरे को लेकर माॅरीशस द्वीप पहुंचा।
उस समय जहाज में हैजा फैल गया। तब जहाज में सवार लोगों ने विचार किया कि जहाज को समुद्र में डूबो दिया जाए। कुछ दिन बाद हैजे का प्रकोप कम होने पर जहाज वहाँ से आगे चला। वे एक विपत्ति से बचकर निकले ही थे कि आगे समुद्र में वे एक भयंकर तूफान में फँस गये। वहाँ से भी जैसे-तैसे बचकर यह जहाज इंग्लैण्ड पहुंचा।
वहां ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बोर्ड आॅफ कन्ट्रोल के चैयरमैन सर जान होबूस ने कोहिनूर हीरा महारानी विक्टोरिया को 3 जुलाई 1850 ई. को सायंकाल साढे़ चार बचे भेंट किया जिसे प्राप्त करने के लिए महारानी बड़ी उत्सुक थी।
सन् 1851 ई. में लन्दन में प्रथम महान् प्रदर्शनी का अयोजन किया गया जिसमें यह कोहिनूर भी प्रदर्शित किया गया था।
(The gem, as already noted, was exhibited at the first Great Exhibition in London, in 1851 A.D.)
कोहिनूर का वजन आठ मिस्कल (320 रत्ती) था। जब यह हीरा ऊबड.-खाबड़ अवस्था में होता है तो उसका बजन 907 रत्ती या 793 कैरेट के बराबर हो जाता है और उसका मूल्य 11,723,278 लीवर होता है। लीवर का समय 18 डी पर जो कि बनता है, करीबन 87,92,451 पौंड स्ट्रलिंग था। इसका मूल्य मामूली बढ़ोतरी से 9/10 से 35,341 तक हो जाता था।
टेवरनियर नामक यात्री ने इसे सन् 1665 ई. में स्वयं औरंगजेब के खजाने में देखा था। टेवरनियर लिखता है कि कोहिनूर का वजन 319 और 1/2 आधा रत्ती अर्थात् 279 और 1/13 कैरेट के बराबर है। घड़ाई के पहले कोहिनूर का वजन 107 रत्ती था जो 793 कैरेट होता है।
इसको तराशने में 628 कैरेट कांट छांट से निकल गया। टेवरनियर द्वारा बनाया गया दूसरा स्केच बिल्कुल सही स्थिति दर्शाता है जिसमें काहिनूर हीरे की कीमत 380,000 गिन्नियां बताई गई हैं, हालांकि उसके तल में छोटा सा नुक्ष है। टेवरनियर जिसने कोहिनूर का भली भांति निरीक्षण किया, उसने कैरेट की कीमत 50 फ्रेंच लीवर मानी है।
मैसर्स बायलीराम ने रणजीतसिंहजी के आदेश से कोहिनूर का वजन नापा था। उसका वजन 39 माशा पाया गया जो 312 रत्तियां बैठता है। इसकी पूरी संभावना है कि उस समय यह व्यवस्थित ढंग से तोलते समय न रखा गया होगा। इस वजह से ही टेवरनियर व मैसर्स बायलीराम के तोलने में फर्क आया।
लंदन में इसको दुबारा तराशा गया। इसको तराशने का कार्य मैसर्स गराड़ के वुरसंगर एम. कोस्टलर को सौंपा गया। इसको तराशने में 38 दिन का समय लगा। इसे अमरस्डम नाम स्थान पर तराशा गया था जिस पर कुल 8000 पौंड का खर्चा आया। इसको तराशने के बाद इसका वनज 106-1/10 कैरेट कम हो गया।
राजनैतिक चक्र में कोहिनूर
मई मास सन् 2000 ई. में कोहिनूर पर भारतीय संसद में हंगामा खड़ा हो गया और राजा रणजीतसिंह के वारिसों में तनातनी होने लगी कि महाराजा दलीपसिंह की सम्पति पर उनका हक है। यह सब बवाल (बखेड़ा) तब मचा जब स्विस बैंक ने 1997 तब उसके उत्तराधिकारीयों की ओर से बैंक में किसी तरह की कोई दावेदारी नहीं की गई थी। जब बैंक ने उन 5700 खातेदारों की सूची प्रकाशित की जिनके खाते उत्तराधिकारियों के दावों के अभाव में बंद पडे़ थे, तभी बेअंतसिंह संघनवाला ने बैंक में जमा कैथरीन की संपत्ति पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत की। अपने दावे की पुष्टि के लिए बंअतसिंह ने वे कागजात प्रस्तुत करने की पेशकश की जो फिलहाल बंकिघम शायर स्थित एक स्विस बैंक की तिजोरी में बंद है।
श्री बेअंतसिंह ने इन कागजातों की प्राप्ति के लिए स्विस बैंक को आवेदन किया है। बेअंतसिंह ने स्वयं को महाराजा दलीपसिंह का अन्तिम उत्तराधिकारी बताया है। उसका कहना है कि ब्रिटिश साम्राज्य ने चालाकी व बलप्रयोग से 1849 ई. में उनके परिवार से कोहिनूर हीरे सहित खजाना हथिया लिया था। अपने दावे में बेअंतसिंह ने कहा कि पंजाब के साथ ब्रिटिश साम्राज्य ने जब संधि की थी, उस समय महाराजा दलीपसिंह की उम्र कम थी व उन पर दबाव डालकर उनके हस्ताक्षर करा लिये गये थे।
श्री बेअंतसिंह का कहाना है कि वे ही दिलीपसिंह के अंतिम उत्तराधिकारी हैं अतः दूसरे ऐसे कौन लोग हो सकते हैं जो इनके दावे की पेशकश कर रहे हैं।
राजा रणजीतसिंह ने जब यह हीरा अफगान की लड़ाई में दोस्त शाह सूजा से छीना था तो क्या इसे अंग्रजों जैसे कृत्य नहीं कहेंगे ? जब आप इसका दावा पेश कर सकते हैं तो दोस्त शाहसूजा के उत्तराधिकारी भी दावा पेश कर सकते हैं और इस तरह मुगल और उसके बाद ग्वालियर के तंवर भी दावा पेश कर सकते है क्योंकि इतिहास गवाह है कि कोहिनूर अपनी उत्पत्ति के पश्चात् सबसे लम्बे काल अर्थात् अनेक पीढ़ियों तक तंवरों (तोमरों) के पास रहा था।
संभवतः आज इन बातों का कोई औचित्य नहीं है। शायद ऐसे दावा करने वालों के लिए मानसिंक चिकित्सालय के अलावा कोई जगह नहीं है, परन्तु आज भारत की अति प्राचीन थाती ’कोहिनूर’ को अब भी भारत लौटने की कोई सम्भावना नहीं है।
भगवान न्यायप्रिय हैं। वह ब्रिटिश जाति को सुबुद्धि दे कि वह भारत के इस अमूल्य रत्न को भारत के किसी म्यूजियम में स्थान देने की कृपा करें।
आज पुरानी किताबें व पत्र देखते समय डाँ. जेम्स मेलिनसन का लिखा पत्र व पुस्तकें देखी तभी कोहिनूर पर लिखे लेख की याद आयी । बहुत आभार मिस्टर जेम्स आपकी बदोलत ही ये लेख लिख पाया था जो 2005 में प्रकाशित भी हुआ ।
पाठकों के विचारों के लिए व गड़े मुड़दे उखाड़ने हेतु सादर प्रस्तुत ।
साभार - महेंद्र सिंह तंवर मेहरानगढ़ शोध संस्थान