Saturday, 17 April 2021

कोहिनूर (Koh-i-noor)

कोहिनूर (Koh-i-noor)

डाँ. महेन्द्रसिंह तँवर


सबसे नायाब और बेशकीमती हीरे का नाम ’कोहिनूर’ है। इस विश्व में इससे श्रेष्ठ दूसरा कोई हीरा नहीं है। आज यह हीरा ब्रिटेन की रानी के ताज की शोभा बढ़ा रहा है किन्तु कभी यह हीरा भी भारत की शान हुआ करता था। इसने कई शताब्दियाँ देखी, कई राजा-महाराजाओं की शोभा बढ़ाई और कई शताब्दियों का लम्बा सफर तय करता हुआ यह ब्रिटेन पहुँचा। इतने लम्बे सफर की कहानी का इतिहास भी बड़ा रोचक और हैरतअंगेज रहा है।

इस हीरे से संदर्भित इतिहास-संबंधी अनेक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। आदिकाल के महाकाव्यों और पुराणों में इसका उल्लेख मिलता है। साथ ही साथ इससे मध्यकालीन इतिहास और आधुनिक इतिहास की भी प्रचुर मात्रा में जानकारी प्राप्त होती है। कोहिनूर ने कई राज्यों को तबाह किया तो कइयों को आबाद भी किया। साथ ही साथ इसने किसी का भाग्योदय किया तो किसी को जीवनदन भी दिया। इसके सफर को एक अजीबोगरीब दास्तान कहा जा सकता है।

अनेक प्रमाणों और ऐतिहासिक सामग्रियों से प्रमाणित होता है कि विश्व में एकमात्र तंवर जाति ने 2 हजार शताब्दियों तक दिल्ली पर शासन किया था। ऐसा कोई राजवंश नहीं था जिसने इतने लम्बे समय तक एक ही राज्य पर शासन किया हो। कोहिनूर की उत्पत्ति (जिस समय गोलकुण्डा की खान से प्राप्त हुआ) के समय से तोमरों (तंवरों) के पास कई  शताब्दियों तक रहा। उसके बाद यह गुमनाम अंधेरे में रहा। ऐसा अनुमान है कि उस अज्ञात काल में भी यह तोमरों के पास ही रहा होगा।
पन्द्रहवीं शताब्दी में तोमर राजा रामशाह ग्वालियर ने इसे हुँमायू को भेंट किया था। उसके पहले वह तोमरों के ही पास रहा। बीच में कुछ अन्तराल के लिए यह अन्य शासकों के पास भी रहा परन्तु इतने लम्बे समय तक वहां नहीं रहा जितना तोमरों के पास रहा। इसलिए आज इस पर किसी का हक बनता है तो सिर्फ तोमरों का ही बनता है अन्यथा किसी भारतीय संग्रहालय में ही रख देना चाहिए।

आज सन् 1947 ई. के पश्चात् 53 वर्षों में पहली बार भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय सत्तारूढ़ सांसदों और विपक्षी दलों ने संसद में कोहिनूर और अन्य भारतीय पुराविद् वस्तुओं को ब्रिटेन से मंगवाने की मांग की थी। 

उस पर प्रधानमंत्रीजी ने ब्रिटेन की सरकार को कोहिनूर की वापसी की चर्चा शुरू करने के आग्रह वाला पत्र 18.05.2000 को भेजा था। कोहिनूर के इतिहास पर एक नजर डालते हुए उसके इतिहास को कई चरणों में बांट कर उसका उल्लेख किया जा रहा है जो इस प्रकार है:-
प्रागैतिहासिक कोहिनूर

कोहिनूर का जन्म आज से पांच सहत्र वर्ष पूर्व गोलकुण्डा की प्रसिद्ध खान से हुआ था। एक किसान के हाथों द्वारा इसने संसार को देखा। दीन किसान ने ऐसी मूल्यवान वस्तु को अपने पास न रखकर जगत-विजयी पाण्डवों को अर्पण कर दी। सम्राट् युधिष्ठिर के मुकुट की शोभा कोहिनूर कुछ ही दिन बढ़ा पाया था कि युधिष्ठिर अपना राज्य और ताज दोनों दुर्योधन को दे बैठे। कोहिनूर के चमचमाते प्रकाश ने कौरव राज्य को बहुत ऊँचा उठा दिया किन्तु भाग्यचक्र में पड़कर महाभारत के युद्ध में कौरव सकुटुम्ब मारे गये और कोहिनूर पुनः श्री कृष्ण द्वारा पाण्डवों के हाथ लगा। पाण्डवों के हिमालय में गलने के लिए जाने पर कोहिनूर ने महाराजा परीक्षित के मुकुट की शोभा बढ़ाई।

महाराजा परीक्षित के बाद 34 पीढ़ी तक कोहिनूर इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर की शोभा बढ़ाता रहा। उत्तरी भारत में राजक्रान्तियों और गृह-कलहों ने घर कर लिया। अतः कोहिनूर हस्तिनापुर के नरेषों के हाथ से छिन गया और दक्षिण में देवगिरी के राजाओं के मुकुट की शोभा बढ़ाने लगा।
ऐतिहासिक कोहिनूर

1223 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने भारत के दक्षिण भाग पर आक्रमण किया और तैलंगान-विजय के समय उसे कोहिनूर हीरा प्राप्त हुआ। तब यह हीरा पुनः दिल्ली आया। दिल्ली पहुँच कर उसने पठान बादशाहों के दरबार को सजाया। पठानों की शक्ति के निर्बल होते ही कोहिनूर पुनः ग्वालियर नरेश डूंगरेन्द्रसिंह तंवर के हाथ लगा। 1437 ई. में जब होशंगशाह खिलजी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया तो वह वहाँ पराजित हुआ और उसने तंवरों को विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर व अलाउद्दीन खिलजी की सोने से मंडित तलवार भेंटस्वरूप दी। यह भेंट थी या ग्वालियर नरेश ने उसे पराजित कर लूट में प्राप्त किया था, कुछ कहा नहीं जा सकता। अलाउद्दीन की यह तलवार ग्वालियर के तंवरों के वंशजों के पास आज भी सुरक्षित है।

‘From ALLAH-U-DIN KHILZI, this sword passed on to his son KHIZER KHAN and once to KHILZI emperor of Malwa in 1437 AD. Mahamod Khilzi of Malwa attacked Gwalior, ruled by Dungrendra Singh Tanwar. Mahamad Khilzi was completely ruined and had to surrender KHOINOOER DIAMOND and this Sword of ALLA-U-DIN KHILZI.
The sword the HEIRLOOM of the Tanwars (Tomars) of Gwalior was Presented by Col. Thakur Prithviraj Singhji to his son latent Kr. Bag Singhji First in the INDIAN MILI-TARY ACADMEY, DEHRADUN in 1935 A.D. The sword is not with Th. Laxman Singhji as family HEIRLOOM.
-Lt. Brig. K. Bag Singhji

1437 ई. से लेकर 1526 ई. तक यह हीरा तंवरों के पास रहा। तत्पश्चात् यह हीरा मुगलों को मिला।
20 अप्रैल, 1523 ई. में राजा विक्रमादित्य पानीपत के रणक्षेत्र में धराशायी हुए। उस समय उनका परिवार आगरा दुर्ग में था। आगरा के दुर्ग की रक्षा का दायित्व इब्राहिम लोदी ने राजा विक्रमादित्य के राजकुमार रामसिंह (रामशाह) और उसके चाचा अजीतसिंह को सौंपा था।
पानीपत के युद्ध में विजय प्राप्त होते ही बाबर को लोदियों के खजाने हस्तगत करने की चिन्ता हुई। उनका मुख्य खजाना आगरा में था और कुछ खजाना दिल्ली में था। आगरा में खजाने पर कब्जा करने के लिए सेनापतियों के साथ हुमायूं को तथा यहूदी ख्वाजाओं को दिल्ली भेजा गया।
4 मई 1523 ई. को हुमायूं आगरा पहुँचा। उसने इस भय के युद्ध प्रारम्भ नहीं किया कि कहीं लोग खजाने को भीतर ही नष्ट न कर दें। आगरा में विक्रमादित्य का परिवार और खजाना भी था। ज्ञात होता है कि दादकिरानी और फिरोज खां ने हुमायूं से, अजीतसिंह की अनभिज्ञता से सन्धि की चर्चा प्रारम्भ की और हानि न पहुंचाने का आश्वासन लेकर हुमायूं को किला समर्पित करने का निश्चय किया। अजीतसिंह व राजकुमार रामशाह ने अपने तंवर सामंतों और सैनिकों की सहायता से अपने परिवार और खजाने के साथ मुगलों का घेरा तोड़कर भाग जाना ही उचित समझा। वे इस प्रयास में सफल नहीं हुए और मुगलों ने उन्हें घेर लिया। 
हुमायूं को तंवर-कुल के प्रताप की जानकारी हो गई थी। आगरा के गढ़ पर अधिकार करने से पूर्व वह कोई युद्ध करना भी नहीं चाहता था। उसने मुगल सैनिकों को तंवरों को लूटने से रोका और अजीतसिंह ने कृतज्ञता-ज्ञापन में, अथवा हुमायूं को उन्हें सुरक्षित चले जाने देने के लिए सहमत करने के उद्देश्य से अत्यधिक मणि-रत्न दिए जिनमें वह महामणि कोहिनूर भी था।

उस सयम मुगलों के जौहरियों ने इसका मूल्य आंका था। उसका वनज 8 मिस्कल (लगभग 320 रत्ती) था और उसके मूल्य से सारे संसार की आबादी को ढाई दिन (2-1/2) तक भोजन कराया जा सकता था। 

इस महामणि के सौदे के बदले राजा विक्रमादित्य का परिवार आगरा से चम्बल के बीहड़ों मे सुरक्षित चला गया। राजा विक्रमादित्य के राजकुमार रामशाह के पाटवी वंशज इस समय केलावा , खेतासर- जोधपुर, राजस्थान में निवास कर रहे हैं। इसी शाखा के लोग बीकानेर, भवाद व दाउसर में रह रहे हैं। उनके पास भाईबंट से अलाउद्दीन खिलजी की तलवार इस समय मौजूद है।
इस महामणि को टेवरनियर नामक यात्री ने औरंगजेब के पास देखा था। यह हीरा सन् 1739 ई. तक मुगलों के ही पास रहा।

सन् 1739 ई. में ईरान के नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया और तत्कालीन मुगल सम्राट् मुहम्मदशाह (1719-1748) से यह हीरा ले लिया। 

नादिरशाह ने ही इसका नाम ’कोहिनूर’ रखा था। मुहम्मदशाह ने इस हीरे को अपनी पगड़ी में छिपा लिया था। एक दासी के द्वारा यह भेद नादिरशाह को ज्ञात हो गया। उसने मुगल सम्राट् से मैत्री के प्रतीक के रूप में पगड़ी बदलने का प्रस्ताव रखा। जब नादिरशाह ने पगड़ी बदलने के पश्चात् उसमें से हीरे को निकाला तो वह इस की आभा देखकर चमत्कृत हो गया और उसके मुंह से निकल पड़ा ’कोहिनूर’ अर्थात् प्रकाश का प्रवर्तन। तभी से इस महामणि को कोहिनूर कहा जाने लगा। 

नादिरशाह इस महामणि को अधिक समय तक न रख सका। सन् 1747 ई. में उसका कत्ल कर दिया गया और उसका राज्य अहमदशाह अब्दाली ने छीन लिया। राज्य के साथ-साथ अब्दाली को यह हीरा भी प्राप्त हुआ।

सन् 1813 ई. में पंजाब के राजा रणजीतसिंह ने अहमदशाह अब्दाली के वंशज शाह सूजा से हीरा छीन लिया।

महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात ईस्ट इण्डिया कम्पनी ओर पंजाब की सिक्ख सरकार के। बीच युद्ध  हुए। सिक्खों ने हारने के बाद सन्धि कर ली जो लाहौर की सन्धि कहलाती हैं । यह सन्धि सन 1849 ई. को हुई थी । सन्धि की धारा में यह भी उल्लेख था की कोहिनूर हीरा जो रानी जिन्दलसे खालसा सरकार ने लिया था , वह महारानी विक्टोरिया के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दिया जाएगा ।लोर्ड डलहोजी ने इसे लेकर सर जॉन लॉरेन्स की हिफ़ाज़त में रखा ।वहाँ इसे मेजर जनरल कनिंघम ने भी देखा था अौर यह अभिमत व्यक्त किया था की यह वही महामणी हैं जिसका उल्लेख बाबर ने अपनी आत्मकथा में किया था । 

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की प्रार्थना पर ब्रिटिश जहाजी बेडे़ का ’मीडिया’ नामक जहाज इस इस हीरे को ले जाने के लिए भारत भेजा गया।

लार्ड डलहौजी स्वयं लाहौर जाकर इस हीरे को लेकर बम्बई पहुँचे। उन्होंने अपने दो रिश्तेदार लेफ्टिनेन्ट कर्नल मैक्सन और कैप्टन रेमर्ग को यह हीरा सौंपा कि वे अपनी सुरक्षा से इसे लन्दन ले जाये और इसकी जानकारी किसी और को नहीं दी जाय। 21 अप्रैल 1850 ई. को वह जहाज कोहिनूर हीरे को लेकर माॅरीशस द्वीप पहुंचा। 

उस समय जहाज में हैजा फैल गया। तब जहाज में सवार लोगों ने विचार किया कि जहाज को समुद्र में डूबो दिया जाए। कुछ दिन बाद हैजे का प्रकोप कम होने पर जहाज वहाँ से आगे चला। वे एक विपत्ति से बचकर निकले ही थे कि आगे समुद्र में वे एक भयंकर तूफान में फँस गये। वहाँ से भी जैसे-तैसे बचकर यह जहाज इंग्लैण्ड पहुंचा। 

वहां ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बोर्ड आॅफ कन्ट्रोल के चैयरमैन सर जान होबूस ने कोहिनूर हीरा महारानी विक्टोरिया को 3 जुलाई 1850 ई. को सायंकाल साढे़ चार बचे भेंट किया जिसे प्राप्त करने के लिए महारानी बड़ी उत्सुक थी।

सन् 1851 ई. में लन्दन में प्रथम महान् प्रदर्शनी का अयोजन किया गया जिसमें यह कोहिनूर भी प्रदर्शित किया गया था।

(The gem, as already noted, was exhibited at the first Great Exhibition in London, in 1851 A.D.)

कोहिनूर का वजन आठ मिस्कल (320 रत्ती) था। जब यह हीरा ऊबड.-खाबड़ अवस्था में होता है तो उसका बजन 907 रत्ती या 793 कैरेट के बराबर हो जाता है और उसका मूल्य 11,723,278 लीवर होता है। लीवर का समय 18 डी पर जो कि बनता है, करीबन 87,92,451 पौंड स्ट्रलिंग था। इसका मूल्य मामूली बढ़ोतरी से 9/10 से 35,341 तक हो जाता था।

टेवरनियर नामक यात्री ने इसे सन् 1665 ई. में स्वयं औरंगजेब के खजाने में देखा था। टेवरनियर लिखता है कि कोहिनूर का वजन  319 और 1/2 आधा रत्ती अर्थात् 279 और 1/13 कैरेट के बराबर है। घड़ाई के पहले कोहिनूर का वजन 107 रत्ती था जो 793 कैरेट होता है। 

इसको तराशने में 628 कैरेट कांट छांट से निकल गया। टेवरनियर द्वारा बनाया गया दूसरा स्केच बिल्कुल सही स्थिति दर्शाता है जिसमें काहिनूर हीरे की कीमत 380,000 गिन्नियां बताई गई हैं, हालांकि उसके तल में छोटा सा नुक्ष है। टेवरनियर जिसने कोहिनूर का भली भांति निरीक्षण किया, उसने कैरेट की कीमत 50 फ्रेंच लीवर मानी है।

मैसर्स बायलीराम ने रणजीतसिंहजी के आदेश से कोहिनूर का वजन नापा था। उसका वजन 39 माशा पाया गया जो 312 रत्तियां बैठता है। इसकी पूरी संभावना है कि उस समय यह व्यवस्थित ढंग से तोलते समय न रखा गया होगा। इस वजह से ही टेवरनियर व मैसर्स बायलीराम के तोलने में फर्क आया।

लंदन में इसको दुबारा तराशा गया। इसको तराशने का कार्य मैसर्स गराड़ के वुरसंगर एम. कोस्टलर को सौंपा गया। इसको तराशने में 38 दिन का समय लगा। इसे अमरस्डम नाम स्थान पर तराशा गया था जिस पर कुल 8000 पौंड का खर्चा आया। इसको तराशने के बाद इसका वनज 106-1/10 कैरेट कम हो गया।
राजनैतिक चक्र में कोहिनूर

मई मास सन् 2000 ई. में कोहिनूर पर भारतीय संसद में हंगामा खड़ा हो गया और राजा रणजीतसिंह के वारिसों में तनातनी होने लगी कि महाराजा दलीपसिंह की सम्पति पर उनका हक है। यह सब बवाल (बखेड़ा) तब मचा जब स्विस बैंक ने 1997 तब उसके उत्तराधिकारीयों की ओर से बैंक में किसी तरह की कोई दावेदारी नहीं की गई थी। जब बैंक ने उन 5700 खातेदारों की सूची प्रकाशित की जिनके खाते उत्तराधिकारियों के दावों के अभाव में बंद पडे़ थे, तभी बेअंतसिंह संघनवाला ने बैंक में जमा कैथरीन की संपत्ति पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत की। अपने दावे की पुष्टि के लिए बंअतसिंह ने वे कागजात प्रस्तुत करने की पेशकश की जो फिलहाल बंकिघम शायर स्थित एक स्विस बैंक की तिजोरी में बंद है।

श्री बेअंतसिंह ने इन कागजातों की प्राप्ति के लिए स्विस बैंक को आवेदन किया है। बेअंतसिंह ने स्वयं को महाराजा दलीपसिंह का अन्तिम उत्तराधिकारी बताया है। उसका कहना है कि ब्रिटिश साम्राज्य ने चालाकी व बलप्रयोग से 1849 ई. में उनके परिवार से कोहिनूर हीरे सहित खजाना हथिया लिया था। अपने दावे में बेअंतसिंह ने कहा कि पंजाब के साथ ब्रिटिश साम्राज्य ने जब संधि की थी, उस समय महाराजा दलीपसिंह की उम्र कम थी व उन पर दबाव डालकर उनके हस्ताक्षर करा लिये गये थे।
श्री बेअंतसिंह का कहाना है कि वे ही दिलीपसिंह के अंतिम उत्तराधिकारी हैं अतः दूसरे ऐसे कौन लोग हो सकते हैं जो इनके दावे की पेशकश कर रहे हैं।

राजा रणजीतसिंह ने जब यह हीरा अफगान की लड़ाई में दोस्त शाह सूजा से छीना था तो क्या इसे अंग्रजों जैसे कृत्य नहीं कहेंगे ? जब आप इसका दावा पेश कर सकते हैं तो दोस्त शाहसूजा के उत्तराधिकारी भी दावा पेश कर सकते हैं और इस तरह मुगल और उसके बाद ग्वालियर के तंवर भी दावा पेश कर सकते है क्योंकि इतिहास गवाह है कि कोहिनूर अपनी उत्पत्ति के पश्चात् सबसे लम्बे काल अर्थात् अनेक पीढ़ियों तक तंवरों (तोमरों) के पास रहा था। 

संभवतः आज इन बातों का कोई औचित्य नहीं है। शायद ऐसे दावा करने वालों के लिए मानसिंक चिकित्सालय के अलावा कोई जगह नहीं है, परन्तु आज भारत की अति प्राचीन थाती ’कोहिनूर’ को अब भी भारत लौटने की कोई सम्भावना नहीं है। 

भगवान न्यायप्रिय हैं। वह ब्रिटिश जाति को सुबुद्धि दे कि वह भारत के इस अमूल्य रत्न को भारत के किसी म्यूजियम में स्थान देने की कृपा करें।

आज पुरानी किताबें व पत्र देखते समय डाँ. जेम्स मेलिनसन का लिखा पत्र व पुस्तकें देखी तभी कोहिनूर पर लिखे लेख की याद आयी । बहुत आभार मिस्टर जेम्स आपकी बदोलत ही ये लेख लिख पाया था जो 2005  में प्रकाशित भी हुआ । 
पाठकों के विचारों के लिए व गड़े मुड़दे उखाड़ने हेतु सादर प्रस्तुत ।

साभार - महेंद्र सिंह तंवर मेहरानगढ़ शोध संस्थान 

Thursday, 15 April 2021

भूस्वामी आंदोलन - देवी सिंह महार

राजपूत सोसायटी मासिक पत्रिका अंक दिसंबर 2014 में संशोधन के साथ 
"भूस्वामी आन्दोलन"

आजादी के बाद राजपूतों का पहला व सबसे बड़ा आन्दोलन ।
आजादी के बाद कांग्रेस नेताओं ने राजपूत जाति को शक्तिहीन करने के लिए सत्ता का प्रयोग करते हुए उनकी जागीरें समाप्त करने हेतु जागीरदारी उन्मूलन कानून बनाकर आर्थिक प्रहार किया, ताकि आर्थिक दृष्टि से भी शक्तिहीन हो जाये और राजपूत राजनैतिक तौर पर चुनौती ना दे सके। इस हेतु सन् 1952 में जागीरदारी उन्मूलन कानून पास किया गया |

 राजस्थान में जागीरदारों की दो श्रेणियाँ थी  ताजीमी जागीरदार व खास चोथी के जागीरदार | छूटभाई व भोमिया जागीरदारों की श्रेणी मे नहीं गिने जाते थे , इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त कानून में ₹5000 सालाना आय से कम आय वाले(छूटभाई व भोमिया) जागीरदारों की जागीरो का अधिग्रहण नहीं किया गया |

 जोधपुर के महाराजा हनुवंतसिंहजी के निधन के बाद जो जागीरदार उनके समर्थन से जीते थे वह अवसरवादी बनकर कांग्रेस में शामिल हो गए , अधिकांश राजपूत संगठनों पर इनका ही प्रभुत्व था | इन्होंने 1952 के जागीर रिडेम्पशन एक्ट का विरोध किया, इसपर सरकार के तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को समझौता कराने के लिए मध्यस्त नियुक्त किया | राजपूत नेताओं के प्रतिनिधित्व मंडल में किसी आम साधारण राजपूत ( जिसका  नामकरण श्री आयुवानसिंहजी ने भूस्वामी किया) को शामिल नहीं किया गया|

पंत अवार्ड में बड़े जागीरदारों की भूमि में कुछ वृद्धि की गई व उनके कब्जे की भूमि के स्वामित्व के अधिकार को बढ़ा दिया गया बदले में भूस्वामी( ₹5000) से कम की आय वाले राजपूतों की जमीनों को भी जागीर बताकर उनका अधिग्रहण का अधिकार सरकार को दे दिया गया |

साधारण राजपूत ( भूस्वामियों ) की जमीन चले जाने से उनकी रोजी-रोटी खत्म होने की नौबत आ गई तब राजपूत युवकों के नवगठित संगठन श्री क्षत्रिय युवक संघ जिसके उस समय संघप्रमुख श्रीं आयुवान सिंह जी हुडील ने इसका विरोध करने का निश्चय किया किंतु संघ संस्थापक श्री तन  सिंह जी इससे सहमत नहीं थे कोशिश करने पर भी इस समझौते में भूस्वामियों के प्रतिनिधियों को भाग नहीं लेने दिया गया ।

ऐसी स्थिति में क्षत्रिय युवक संघ ने जाति को जागृत करने हेतु शंख बजाया तो समाज  ने फिर अंगडाई ली । एक तरफ इस कानून को सबसे पहले राजस्थान उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई कर्मठ क्षत्रियों ने जिसमें आयुवानसिंह जी हुडील, , ठाकुर मदनसिंह जी दांता, रघुवीर सिंह जी जावली, सवाईसिंह जी धमोरा, केशरीसिंह जी पटौदी, विजयसिंह जी राजपुरा, शिवचरणदास जी निम्बाहेड़ा (मेवाड़), हीर सिंह जी सिंदरथ, कुमेर सिंह जी भादरा ने भू - स्वामियों को संगठित किया और जगह - जगह घूमकर राजपूत समाज को सरकार से लड़ने को तैयार कर दिया । क्षत्रिय युवक संघ के युवकों ने सरकार के विरूद्ध अहिंसात्मक आन्दोलन चलाने की योजना बनाई । भूस्वामी आन्दोलन को व्यवस्था देने हेतु एक राजपूतों का शिविर (सिरोही) में रखा गया और वहां सरकार से डटकर मुकाबला करने की योजना बनाई गई । भूस्वामी आन्दोलन को नेतृत्व देने वाले कौन - कौन और कब - कब होंगे ? यह निश्चित किया गया और भूस्वामी संघ के अध्यक्ष जब गिरफ्तार हो जायेगें तो दूसरे व्यक्ति उसका नेतृत्व ग्रहण कर लेंगे ।

 आंदोलन का आरंभ श्री आयुवान सिंह जी हुडील व ठाकुर केसरी सिंह जी पाटोदी ने जैसलमेर से किया | जैसलमेर में आंदोलन चल पड़ा तब नेतृत्व में पिछड़ जाने की आशंका से श्री तनसिंह जी ने बाड़मेर में आंदोलन आरम्भ किया व जयपुर आकर संघ बंधुओं में शामिल हुए तब उन्हें संघ का महामंत्री बनाया गया | ठाकुर मदन सिंह जी दाँता भी आरंभ में आंदोलन के पक्ष में नहीं थे, आंदोलन की शुरुआत होते ही स्वप्रेरणा से आंदोलन में कूद पड़े व सीकर से आंदोलन आरंभ कर दिया | पूरे जयपुर व  अलवर रियासत क्षेत्र में इन्होंने गांव गांव जाकर आंदोलन के लिए लोगों को प्रेरित किया | भूस्वामी संघ के गठन के समय कई युवक जैसे श्री भैरों सिंह जी शेखावत खाचरियावास, तो धोंकल सिंह जी चरला आदि शामिल हुए थे लेकिन आंदोलन प्रारंभ होने पर निष्क्रिय हो गए |

 ठा. मदनसिंह जी दांता प्रथम अध्यक्ष बनाए गए और इसी पंक्ति में फिर रघुवीरसिंह जी जावली, आयुवानसिंह जी हुडील, तनसिंह जी बाड़मेर, शिवचरणदास जी निम्बाहेड़ा (मेवाड़), हीर सिंह जी सिंदरथ (सिरोही) और केशरीसिंह जी पाटोदी रखे गए।
राजस्थान के सब जिलों में जिलेवार शिविरों को व्यवस्थाएं की गई। इन शिविर केन्द्रों से जत्थे के जत्थे जयपुर भेजने की व्यवस्था भी की गई और इस प्रकार क्षत्रिय युवक संघ के युवकों ने सरकार के सामने तूफानी संगठन खड़ा कर दिया था। यह भूस्वामी आन्दोलन 1 जून 1955 को आरम्भ हुआ और एक महीने चला व दूसरा आंदोलन करीबन पांच माह चला | देश की स्वतंत्रता के बाद देश का यह एक बड़ा आन्दोलन था जिसको बीबीसी लंदन विश्व का सबसे बड़ा अहिंसात्मक आंदोलन कहता था लेकिन देश के अखबार व मीडिया चुप थे। इस समय भूस्वामी संघ के अध्यक्ष मदनसिंह जी दांता थे । आन्दोलनकारियों के सिर पर साफा होता था तथा एक बैज होता था जिस पर ‘वीर सेनानी’ अंकित होता था । आयुवानसिंह जी हुडील ने भूमिगत रहकर आन्दोलन का संचालन किया तो बाहर मदनसिंह जी दांता व रघुवीरसिंह जी जावली आदि वीर भूस्वामियों के साथ डटे रहे।

क्षत्रिय युवकों और अन्य साहसी लोगों  से जेलें भरने लगी । भूस्वामी आन्दोलन चलता रहा, राजपूत गिरफ्तार होते रहे । भूस्वामी आन्दोलन का संचालन आयुवानसिंह जी ने भूमिगत रहकर किया । तनसिंह जी ने आन्दोलन का केंद्र बाड़मेर में खोला व बन्दी हुए । आन्दोलन की तेज गति से घबराकर तत्कालीन मुख्यमन्त्री मोहनलाल सुखाड़िया ने भूस्वामी संघ के अध्यक्ष मदनसिंह जी दांता को लिखित आश्वासन दिया, जिसके फलस्वरूप आन्दोलन 21 जुलाई 1955 को स्थगित कर दिया गया, परन्तु इसकी क्रियान्विति पर पुन: मतभेद हो गया और 19 दिसंबर 1955 को पुन: आन्दोलन शुरू हो गया।

गृहमंत्री रामकिशोर व्यास के निवास स्थान पर प्रदर्शन किया गया । बहुत से भूस्वामी गोविन्दसिंह जी आमेट के नेतृत्व में गिरफ्तार किये गये। आन्दोलन चलता रहा, भूस्वामी जेल जाते रहे और मार्च 1956 में आयुवानसिंह जी को बन्दी बना दिया गया । भूस्वामी बन्दियों को राजनैतिक कैदी मानकर बी श्रेणी में रखा गया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आयुवानसिंह जी ने जोधपुर जेल में अनशन शुरू कर दिया । 22 मार्च, 1956 को आयुवानसिंह जी को टोंक जेल में भेज दिया गया , जहाँ तनसिंह जी व सवाईसिंह जी धमोरा भी पहले से बन्दी थे। यहां इन तीनों ने भी अनशन शुरू कर दिए , अन्त में सरकार को भूस्वामियों को राजनैतिक कैदी मानना पड़ा व उनको ‘बी’ श्रेणी की सुविधायें देनी पड़ी।

रामराज्य परिषद् व हिन्दू महासभा के नेताओं ने इस आन्दोलन का पूर्ण समर्थन किया । रामराज्य परिषद् के संस्थापक स्वामी करपात्री जी महाराज, स्वामी कृष्ण बौधाश्रम जी महाराज (जो बाद में ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य बने), स्वामी स्व. रूपानन्दजी सरस्वती (ज्योर्तिमठ के तत्कालीन शंकराचार्य), लोकसभा के सदस्य नन्दलाल जी शर्मा (तत्कालीन लोकसभा सदस्य), केशव जी शर्मा, राजा महेन्द्रप्रताप जी वृन्दावन जैसी विशिष्ठ प्रतिभाओं का मार्ग दर्शन भी प्राप्त हुआ। (संघ शक्ति अक्टूबर 80 में श्री भानु के लेख से साभार) इनके अतिरिक्त  ओंकारलाल जी सर्राफ, सत्यनारायण जी सिन्हा, जुगलकिशोर जी बिड़ला, डॉ. बलदेव जी आदि का सराहनीय योगदान रहा ।

भूस्वामी आन्दोलन को सफल बनाने में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा व जयपुर राजपूत सभा के अलावा राजस्थान के बाहर के राजपूतों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा । मालवा के बासेन्द्रा ठिकाने के कुँवर तेजसिंह जी सत्याग्रहियों का जत्था लेकर पहुंचे । राव कृष्णपालसिंह जी, रामदयालसिंह जी ग्वालियर, जनेतसिंह जी इटावा, महावीरसिंह जी भदौरिया, ठाकुर कोकसिंह जी भदोरिया, डॉ. ए.पी. सिंह जी लखनऊ, प्रेमचन्द जी वर्मा, सौराष्ट्र (गुजरात) से एडवोकेट नटवरसिंह जी जाड़ेजा व हरि सिंह जी गोहिल , मास्टर अमरसिंह जी बड़गुजर भौड़सी (हरियाणा) आदि साहसी व्यक्ति भी इस आन्दोलन में कुद पड़े।

यों तो राजस्थान के तीन लाख से अधिक सेनानी इस भूस्वामी आन्दोलन में सम्मिलित हुए पर सबका यहां नाम अंकित करना सम्भव नहीं , फिर भी इस आन्दोलन में जिनका अधिक सक्रिय योगदान रहा उनमें कुँवर आयुवान सिंह जी हुडील , ठाकुर तन सिंह जी रामदेरिया , कर्नल मोहन सिंह जी भाटी ओसियां , ठाकुर मदन सिंह जी दांता , ठाकुर रघुवीर सिंह जी जावली , ठाकुर मोहर सिंह जी लाखाऊ , ठाकुर कल्याण सिंह जी कालवी, कुँवर विजय सिंह जी नन्देरा , ठाकुर केसरी सिंह जी पाटोदी , ठाकुर सज्जन सिंह जी देवली , ठाकुर दलपत सिंह जी पदमपुरा , ठाकुर हरी सिंह जी सोलंकियातला , ठाकुर सवाई सिंह जी धमोरा , ठाकुर हेम सिंह जी चोहटन , ठाकुर हीर सिंह जी सिंदरथ (सिरोही) , ठाकुर शूर सिंह जी नाथावत रेटा , ठाकुर लख सिंह जी भाटी पूनमनगर , ठाकुर देवी सिंह जी खुड़ी , ठाकुर हेम सिंह जी मगरासर , कर्नल माधो सिंह जी अनवाड़ा , ठाकुर रामदयाल सिंह जी ग्वालियर , महाराज प्रहलाद सिंह जी जोधपुर , ठाकुर छोटू सिंह जी डाँवरा (जोधपुर), ठाकुर जैनेश सिंह जी चन्द्रपुरा (UP) , गोहिल ठाकुर हरी सिंह जी गढुला (सौराष्ट्र) , ठाकुर रिसालसिंह जी जोधपुर,  रघुनाथ सहाय जी वकील जयपुर, स्वरूपसिंह जी खुड़ी, उम्मेदसिंह जी कनई, नरपतसिंह जी खवर, कानसिंह जी बोघेरा, मास्टर अमरसिंह जी अलवर, राजा अर्जुनसिंह जी किशनगढ़, बलवन्तसिंह जी नेतावल (मेवाड़), उदयभान सिंह जी चनाना, गणपतसिंह जी चंवरा (जयपुर जेल से छूटने के बाद वहीं देवलोक हुए), चैनसिंह जी भाकरोद, उदयसिंह जी भाटी, रणमलसिंह जी सापणदा, उदयसिंह जी आवला, हरिसिंह जी राठौड़ (गढ़ियावाला रावजी), कुमसिंह जी सोलंकीयातला , भूरसिंह जी सिंदरथ , नरपतसिंह जी सराणा, मालमसिंह जी बड़गांव , जयसिंह जी नन्देरा, गिरधारीसिंह जी खोखर, प्रतापसिंह जी सापून्दा, ठाकुर रिड़मलसिंह जी सापून्दा, उम्मेदसिंह जी भदूण, महाराजा अर्जुनसिंह जी, भोमसिंह जी कुन्दनपुर कोटा, प्रो. मदनसिंह जी अजमेर, राव कल्याणसिंह जी, राजा सुदर्शनसिंह जी शाहपुरा, तख़्तसिंह जी मलसीसर, नारायणसिंह जी सरगोठ, राव वीरेन्द्रसिंह जी खवा (जयपुर), अमरसिंह जी व आनन्दसिंह जी बोरावड़, तेजसिंह जी विचावा, ठा. मानसिंह जी कैराप , तख्तसिंह जी, भीमसिंह जी साण्डेराव, ठा. सवाई सिंह जी फालना आदि प्रमुख लोग थे ।

आन्दोलन तेज गति से चलने लगा, जयपुर की सड़कों और चौराहों पर केशरिया साफा बांधे हुए भूस्वामियों के जत्थे नजर आते थे । दिन प्रतिदिन भूस्वामियों से जेल भरी जाने लगी थी । ऐसे समय राजा सवाई मानसिंह जी जयपुर का सहयोग लेने के लिए आयुवानसिंह जी ने उनको एक पत्र लिखा जिसका भाव यह था कि हमारे पूर्वजों ने जयपुर रियासत की रक्षार्थ व प्रजा की रक्षार्थ सिर कटाये हैं । अब आपको जरा भी ध्यान है तो हमारी सहायता करें । यह पत्र छोटापाना खण्डेला राजा संग्रामसिंह जी के माध्यम से महाराजा के पास पहुँचाया गया । पत्र पढ़कर महाराजा सवाई मानसिंह जी प्रभावित हुए और उन्होंने भूस्वामियों को सहायता करने का मानस बना लिया तथा शीघ्र ही तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू से सम्पर्क साधा । दूसरी ओर इसी समय मोहरसिह जी लाखाऊ व देवीसिंह जी महार दिल्ली पहुंचे और जुगल किशोर जी बिड़ला के माध्यम से सत्यनारायण सिन्हा भी भूस्वामियों की मांगों से सहमत हुए और उन्होंने शीघ्र ही नेहरूजी से सम्पर्क किया । नेहरू जी ने भूस्वामियों की मांगों पर विचार करना स्वीकार किया । नेहरूजी के हस्तक्षेप से भूस्वामी कार्यकारिणी के सदस्यों को पन्द्रह दिन के लिए पेरोल पर रिहा किया । भूस्वामी सदस्यों के विषय अध्ययन और उनके समाधान के लिए एक समिति निर्मित की गई। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अनुभवी प्रशासक त्रिलोकसिंह व नवाबसिंह इनके सदस्य थे ।
रघुवीरसिंह जी जावली, तनसिंह जी बाड़मेर व आयुवानसिंह जी ने भूस्वामियों की ओर से एक प्रतिवेदन तैयार किया और इस समिति के सामने रखा , नेताओं से बातचीत की । अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के मंत्री डॉ. ए.पी. सिंह जी, ठाकुर रघुवीरसिंह जी व आयुवानसिंह जी सहित छ: सदस्यों के शिष्टमण्डल ने नेहरूजी को स्मरण पत्र दिया । कुछ लोगों ने आन्दोलनकारियों में फूट डालकर इसे विफल करने का प्रयास भी किया पर भूस्वामी टस से मस नहीं हुए। नेहरूजी की भूस्वामियों के साथ सहानुभूति पर भी राज्य सरकार भूस्वामी वर्ग की सहृदयता को कमजोरी मान रही थी । अत: वार्ता असफल हो गई तो 29 मई 1956 को यह आन्दोलन पुन: जोर पकड़ने लगा । भैंरूसिंह जी बड़ावर, ठाकुर देवीसिंह जी खुड़ी और सवाईसिंह जी धमोरा वापिस जेल गए । पं. नेहरू को जब यह हालात मालुम हुए तो वयोवृद्ध गांधीवादी विचारक रामनारायण जी चौधरी को जयपुर भेजा ।
भूस्वामी नेताओं से उन्होंने शीघ्र ही सम्पर्क किया । श्री तनसिंह जी ने 1 जून 1956 को आमरण अनशन शुरू कर दिया था । राजस्थान सरकार का रवैया अच्छा न होने के कारण आयुवानसिंह जी ने पुनः 23 जून, 1956 को व्यक्तिगत सत्याग्रह का नोटिस दिया । इसी समय रघुवीरसिह जी जावली, रामनारायण जी चौधरी, उदयभान सिंह जी चनाना व विजयसिंह जी नन्देरा भी आयुवानसिंह जी से जेल मिलने आये। आयुवानसिंह जी, सवाईसिंह जी धमोरा व तनसिंह जी से लम्बी बातचीत की । अच्छा वातावरण बना प्रस्ताव तैयार किया गया । इस प्रस्ताव को दिखाने शिवचरणदास जी, ठा. रणमलसिंह जी सापणदा, उदयभान सिंह जी चनाना, सुरसिंह जी रेटा जेल में मिलने गये। 26 जून 1956 को उच्च न्यायालय के आदेश से रिहा किये गए पर आयुवानसिंह जी व सवाईसिंह जी धमोरा जेल में ही रहे। बाद में मोहरसिंह जी एडवोकेट ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से 13 अगस्त 1956 की रिहा करवाया। इस आन्दोलन का सरकार पर अधिक दबाव आयुवानसिंह जी के व्यक्तिगत सत्याग्रह, उनकी भूख हड़ताल व उनके अनशन के कारण पड़ा। ठाकुर बाघसिंह जी शेखावत बरड़वा आयुवानसिंह जी के समर्थन में अनशन किया । इन सबका मुख्यमंत्री सुखाड़िया पर नैतिक दबाव पड़
इस कारण सरकार ने समझौता वार्ता शुरू की व समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार भूस्वामियों को खुदकाश्त के लिए मुरब्बे (जमीन), राजकीय सर्विस में जागीरदारों की नियुक्ति, जागीर कर्मचारियों के पेंशन की सुविधा, जागीर मुवावजे में वृद्धि आदि लाभ दिये गये। राजस्थान के भूस्वामी संघ के भूस्वामी आन्दोलन की समाप्ति के बाद गुजरात के भूस्वामियों को लाभ दिलाने के लिए आयुवानसिंह जी अपने पचास साथियों सहित कच्छ भूज गए और सौराष्ट्र तथा कच्छ का दौरा किया। अहमदाबाद में स्वयं ने अनशन की घोषणा की। इनके साथ वहां सवाईसिंह जी धमोरा, रघुवीरसिंह जी जावली आदि भी थे। अन्त में गुजरात सरकार को भी वहां के भूस्वामियों को सुविधाएं देनी पड़ी। इस प्रकार भूस्वामी संघ के इन राजपूती चरित्र के युवकों ने जागीरदारी उन्मूलन के मामलों पर राजस्थान सरकार को झुकाया और गुजरात सरकार को भी प्रभावित किया ।
 लोग यह समझते हैं कि नेहरू अवॉर्ड से भू स्वामियों को बहुत लाभ मिला लेकिन यह बात सत्य नहीं है अवार्ड से मुआवजे में वृद्धि हुई व मामूली सुविधाएं दी गई | केंद्रीय पार्लियामेंट्री मिनिस्टर श्री सत्यनारायण सिंह सिन्हा ( बीकानेर से गए हुए राठौड़ ) ने जब नेहरू जी पर दबाव डाला तब उन्होंने तुरंत मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया को बुलाया और कहा कि " देश में लोकतंत्र तब तक ही चलेगा जब तक सरकारें अहिंसात्मक आंदोलनों को सफल बनाती रहेगी " | पंडित नेहरू के इस कथन का सुखाड़िया पर भारी प्रभाव पड़ा और मुख्यमंत्री ने तत्कालीन राजस्व मंत्री दामोदरदास को भूस्वामियों की समस्याओं का निराकरण करने के लिए नियुक्त किया |
 ठाकुर रघुवीर सिंह जी जावली जिन्होंने भूस्वामी संघ की तरफ से दामोदर दास से वार्ता की और अपने अद्भुत व्यक्तित्व व  योग्यता के आधार पर इतनी सुविधाएं सरकार से जुटाई जिसकी आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता | सरकार के स्तर पर इन सुविधाओं का लाभ भूस्वामियों को मिले इसके लिए जागीर कलेक्टर व जागीर कमिश्नर नियुक्त किए गए और उनके सामने भूस्वामियों की पैरवी करने के लिए राजपूत वकील भी सरकार ने नियुक्त किए जिसके परिणाम स्वरूप सुविधाएं भू स्वामियों को मिल सकी |
 लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि संघ के पास पैसा व कार्यालय भी नहीं था व आंदोलन के बाद आयुवान सिंह जी पर वृथा आरोप लगाकर उनको संघ प्रमुख से इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर दिया गया जिससे वह शक्तिहीन होकर निष्क्रिय बन गए इससे समाज को कितनी हानि हुई और इसके लिए कौन कौन जिम्मेदार थे इसका मूल्यांकन करने का आज तक किसी ने प्रयास नहीं किया |